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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. तृतीय अध्याय........{84} प्रकृतियों का संक्रमण एवं क्षय करता है। इन गाथाओं में भी हमें कहीं गुणस्थान शब्द का उल्लेख तो नहीं मिलता है, किन्तु दो स्थानों पर गुणश्रेणियों का उल्लेख है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कसायपाहुडसुत्त में मोहनीय कर्म की कर्म प्रकृत्तियों के संक्रमण, उपशम और क्षय की विस्तृत चर्चा है। जैसा कि हमने पूर्व में कहा कि इस चर्चा का सम्बन्ध गुणस्थान की अवधारणा से भी है, किन्तु मूल ग्रन्थ में और उसके चूर्णिसूत्रों में गुणस्थान शब्द का अनुल्लेख और गुणश्रेणी शब्द का बार-बार उल्लेख यही बताता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में मोहनीय कर्म की कर्मप्रकृतियों के संक्रमण, क्षय, उपशम आदि की जो चर्चा है, वह चर्चा मूलतः गुणश्रेणी की अवधारणा से ही सम्बन्धित है। डॉ. सागरमल जैन आदि विद्वानों का कहना है कि यह ग्रन्थ गुणस्थान सिद्धान्त के विकास से पूर्ववर्ती है, किन्तु आचारांगनियुक्ति एवं तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित गुणश्रेणियों की अवधारणा से गुणस्थान की अवधारणा का जो विकास हुआ है, उसमें मध्यवर्ती पड़ाव के रूप में है। अतः षट्खण्डागम, जो स्पष्ट रूप से चौदह गुणस्थानों का वर्णन करता है, उसकी अपेक्षा कसायपाहुडसुत्त पूर्ववर्ती ही सिद्ध होता है। यह भी सम्भव है कि कसायपाहुडसुत्त की रचना ही नहीं, उसके चूर्णिसूत्रों की रचना के भी पश्चात् षट्खण्डागम की रचना हुई हो। भ्रषट्खण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी परिचय एवं विवेचन दिगम्बर परम्परा के आगम तुल्य ग्रन्थों में षट्खण्डागम का महत्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा आगम साहित्य का विच्छेद मानती है, किन्तु उसके अनुसार कसायपाहुड, षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थ आगम साहित्य के आधार पर ही निर्मित हुए है। षट्खण्डागम की रचना का आधार दृष्टिवाद माना गया है। दृष्टिवाद के जो पांच 3 नमें एक अंग पूर्व साहित्य के रूप में माना जाता है। षट्खण्डागम का उद्गम द्वितीय अग्रायणी पूर्व से माना जाता है। इस प्रकार किसी रूप में यह आगम साहित्य का ही एक अंग माना गया है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग ६८३ वर्ष पश्चात् क्रमशः अंग और पूर्वो का ज्ञान क्षीण होते-होते आंशिक रूप से ही अवशिष्ट रह गया था। उस समय काठियावाड के गिरनार पर्वत की चंद्रगुफा में स्थित आचार्य धरसेन को यह विचार आया कि मैं अब अतिवृद्ध हो रहा हूँ, मेरे पास जो पर्वसाहित्य और विशेष रूप से कर्मसाहित्य का जो ज्ञान है. यदि वह किसी योग्य व्यक्ति को नहीं दिया गया तो लप्त हो जाएगा। इस प्रकार श्रुत के संरक्षण के भाव से उन्होंने दक्षिणपथ में रहे हुए मुनियों को यह सूचना भिजवाई कि श्रुत को ग्रहण कर उसको धारण करने में समर्थ ऐसे योग्य साधओं को इनके पास भेजा जाए। तब दक्षिणपथ से पुष्पदंत और भतबली नामक दो मनि आचार्य धरसेन की सेवा में पहुँचें। आचार्य धरसेन ने उन्हें महाकर्म प्रकृति प्राभृत का विधिपूर्वक अध्ययन करवाया। आगे उसी महाकर्म प्रकृति प्राभृत के आधार पर आचार्य पुष्पदंत और भूतबली ने षट्खण्डागम की रचना की। इसी कथानक के आधार पर षट्खण्डागम के रचनाकार पुष्पदंत और भूतबली को माना जाता है। उपर्युक्त विवरण से यह भी स्पष्ट हो जाता है षट्खण्डागम का मुख्य विषय जैनदर्शन का कर्म सिद्धान्त है। जहाँ तक ग्रन्थ के रचनाकाल का प्रश्न है, सामान्य के ६८३ वर्ष पश्चात् अर्थात् विक्रम की तीसरी शताब्दी में इस ग्रन्थ की रचना हुई होगी । यद्यपि डॉ. सागरमल में गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना को देखकर यह अनुमान किया है कि इसका रचनाकाल पांचवीं शताब्दी के आसपास होना चाहिए। उनके कथन का मुख्य आधार यह है कि तत्त्वार्थ सूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना करने वाले ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य से परवर्ती होना चाहिए। वे तत्त्वार्थसूत्र का काल विक्रम की तीसरी-चौथी शताब्दी के लगभग मानते हैं। इसी आधार पर उन्होंने षट्खण्डागम का काल पांचवीं शताब्दी किन्तु परम्परागत दृष्टि से उमास्वाति और उनके तत्त्वार्थसूत्र का काल ईसा की प्रथम शताब्दी माना जाता है, यदि करें तो षट्खण्डागम का काल विक्रम की तीसरी शताब्दी मानने में कोई बाधा नहीं आती है। जहाँ तक षटखण्डागम की परम्परा का प्रश्न है, सामान्यतया षटखण्डागम को दिगम्बर परम्परा में आगम तुल्य ग्रन्थ के रूप Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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