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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय.......{83} नवें 'गुणस्थान से और सूक्ष्मसंपरा को दसवें सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान से सम्बन्धित माना गया है। इस सम्पूर्ण अधिकार का सम्बन्ध तो चारित्रमोह कर्म की कर्मप्रकृतियों के उपशमन की चर्चा से है । यह सत्य है कि चारित्रमोह के उपशमन की स्थिति में बादरराग और सूक्ष्मसंपराय की स्थिति घटित होती है, किन्तु इसका सम्बन्ध भी उपशमक गुणश्रेणी से ही है। यहाँ बादरराग और सूक्ष्मसंपराय - ऐसी दो अवस्थाओं का चित्रण है। उसमें जो बादरराग शब्द का प्रयोग हुआ है, वह स्पष्ट अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान से सम्बन्धित ही हो, यह कहना कठिन है । यद्यपि चूर्णिसूत्रों में इस अवस्था में किन-किन कर्म प्रकृतियों का बन्ध होता है, कौन-कौन सी कर्म प्रकृतियाँ उदयावली में प्रवेश करती है अर्थात् उनका उदय होता है ? किन कर्म प्रकृतियों के कितने भाग का संक्रमण और उदीरणा होती है ? यह सब विस्तृत चर्चा मूल ग्रन्थ में तो नहीं है, किन्तु चूर्णिसूत्रों में है । यही कारण है कि कुछ विद्वानों ने इन गाथाओं का सम्बन्ध गुणस्थानों के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया है। इन गाथाओं के चूर्णिसूत्रों में भी अधः प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का उल्लेख हुआ है, किन्तु ये तीनों करण प्रत्येक गुणश्रेणी में घटित होते हैं। मूल गाथाओं और चूर्णिसूत्रों में स्पष्ट गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है, किन्तु गुणश्रेणी शब्द का उल्लेख अनेक बार हुआ है। इससे इन गाथाओं का सम्बन्ध उपशम गुणश्रेणी से ही देखा जाना चाहिए। जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके हैं कि गुणश्रेणियों की अवधारणा गुणस्थान से पूर्ववर्ती है। यह सम्भव है कि ग्रन्थकार के सम्मुख गुणश्रेणी की अवधारणा रही हो। मूल सूत्र में और उसकी भाष्य गाथाओं में तथा चूर्णिसूत्रों में गुणश्रेणियों का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है। अग्रिम पन्द्रहवें अधिकार की भाष्य गाथाओं में गुणश्रेणी शब्द का उल्लेख हुआ 1909 कसायपाहुडसुत्त का पन्द्रहवाँ अधिकार चारित्रमोहक्षपणा है, इस अधिकार का सम्बन्ध चारित्रमोह कर्म की प्रकृतियों के क्षपण या क्षय से है। १७२ इस अधिकार में मूल गाथाओं की अपेक्षा भाष्य गाथाओं की संख्या सर्वाधिक है। इन गाथाओं में केवल दो स्थानों पर बादरराग और सूक्ष्मसंपराय या सूक्ष्मराग शब्द का प्रयोग हुआ है । १७३ इन तीनों में बादरराग का सम्बन्ध अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक नवें गुणस्थान से तथा सूक्ष्मसंपराय और सूक्ष्मराग शब्द का सम्बन्ध सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान से जोड़ा जाता है, किन्तु हमारी दृष्टि से यह चर्चा गुणश्रेणी से सम्बन्धित प्रतीत होती है, क्योंकि इस अधिकार की मूल गाथाओं और भाष्य गाथाओं में कहीं भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, किन्तु गुणश्रेणी शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है। इसके चूर्णिसूत्रों में भी हमें कहीं भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग देखने को नहीं मिलता है। इस अधिकार के अन्त में चूर्णिसूत्रों में यह कहा गया है कि तदनन्तर क्षपक केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्तवीर्य से युक्त होकर जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता है, उसे सयोगी जिन कहा जाता है। * यहाँ सयोगी जिन शब्द का प्रयोग देखकर निश्चय से ऐसा लगता है कि चूर्णिसूत्रकार गुणस्थान सिद्धान्त से परिचित रहे होंगे, क्योंकि गुणश्रेणियों की जो प्रारंभिक चर्चा उपलब्ध होती है, उसमें तो दस गुण श्रेणियों का ही उल्लेख है, यद्यपि परवर्ती ग्रन्थों में ग्यारह गुणश्रेणियों का भी उल्लेख मिलता है। उनमें सयोगी जिन और अयोगी जिन-ऐसे अलग-अलग दो विभाग भी मिलते हैं। यद्यपि यहाँ चूर्णिसूत्रकारने अयोगी जिन का कोई उल्लेख नहीं किया है, फिर भी सयोगी जिन का जो यहाँ उल्लेख है, वह गुणश्रेणी से ही ज्यादा सम्बन्धित प्रतीत होता है, क्योंकि चूर्णि सूत्रों में उसके ठीक पश्चात् ‘असंखेज्जगुणएसेढीए’-इन शब्दों का उल्लेख हुआ है, इससे यही प्रतिफलित होता है कि कसायपाहुडसुत्त में जो कुछ नाम गुणस्थान से सम्बन्धित देखे जाते हैं, वे मूलतः गुणश्रेणी की अवधारणा से ही सम्बन्धित प्रतीत होते हैं । क्षपण अधिकार के अन्त में बारह चूलिका गाथाएं हैं । १७५ इन चूलिका गाथाओं में भी यह बताया गया है कि क्षपक श्रेणी करते समय जीव किस क्रम से कर्म १७४ १७१ कसायपाहुडसुत्त, गाथा क्रमांक १४०, १४६, १४६, १६०, १६५ १७२ कसायपाहुडसुत्त, गाथा भाष्य २१६, २१७ १७३ कसायपाहुडसुत्त, गाथा १२१ १७४ कसायपाहुडसुत्त, गाथा २३३ के चूर्णिसूत्र पृ. ८६६ १७५ कसायपाहुडसुत्त, गाथा ७, ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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