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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{82} बन्ध और संक्रमण अधिकार के पश्चात् वेदक अर्थ अधिकार तथा उपयोग अर्थ अधिकार में गुणस्थानों से सम्बधित कोई भी संकेत उपलब्ध नहीं होता है। चतुःस्थान अधिकार में मुख्य रूप से क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार कषायों की अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानीय, प्रत्याख्यानीय और संज्वलन ऐसी चार-चार अवस्थाओं का सोदाहरण उल्लेख हुआ है। इन चार-चार अवस्थाओं को चतुःस्थान कहा गया है। इससे सम्बन्धित गाथाओं में पुनः मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व तथा अविरत, विरताविरत और विरत का उल्लेख हुआ है, किन्तु इन अवस्थाओं में मोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियों के बन्ध आदि होते हैं, इसका सामान्य संकेत मात्र है। उसके पश्चात् व्यंजन अधिकार में भी सामान्य रूप से चारों कषायों के विभिन्न नामों की चर्चा है। ज्ञातव्य है कि यह चर्चा भगवतीसूत्र आदि में भी उपलब्ध होती है। यहाँ भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई निर्देश नहीं है। इसके पश्चात् दसवें सम्यक्त्व अधिकार में दर्शनमोह उपशमक के परिणाम कैसे होते हैं ? उसमें योग, उपयोग, कषाय, लेश्या, वेद आदि की क्या स्थिति होती है ? इसकी चर्चा है। इस चर्चा में आगे यह भी बताया गया है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनमोह का अबन्धक होता है। इसी चर्चा में यह भी कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि जिन प्रवचन में श्रद्धा करता है। मिथ्यादृष्टि उस पर श्रद्धा नहीं करता है। इस प्रकार इस सम्यक्त्व अधिकार में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, दर्शनमोह क्षपक आदि का उल्लेख हुआ है, किन्तु यह उल्लेख गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित है, ऐसा निर्णीत करना कठिन है। इस अधिकार के चूर्णि सूत्रों में अधः प्रवृत्तकरण (यथा प्रवृत्तकरण), अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु यह उल्लेख गुणस्थानों की अपेक्षा से न होकर मिथ्यात्व के क्षय या उपशम की अपेक्षा से है। अतः चूर्णिसूत्रों के आधार पर भी इस समग्र विवेचन को गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित नहीं माना जा सकता है। इसके पश्चात् दर्शनमोहक्षपणा अधिकार है।'६५ इसमें यह बताया गया है कि दर्शनमोह का क्षपण कौन कर सकता है तथा किस प्रकार कर सकता है। इसी क्रम में क्षीणमोह शब्द का उल्लेख का तात्पर्य क्षायिकसम्यग्दृष्टि ही है। इसमें कहा गया है कि मनुष्यों में क्षीणमोही अर्थात् क्षायिकसम्यग्दृष्टि नियम से संख्यात सहन होते हैं। शेष गतियों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव नियम से असंख्यात होते हैं। इसके चूर्णिसूत्रों में भी अघः प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण आदि की विस्तृत चर्चा है,६६ किन्तु इसका सम्बन्ध दर्शनमोह के क्षपण से ही है, अतः ये भी गुणस्थानों से सम्बन्धित नहीं माने जा सकते। इसके पश्चात् संयमासंयमलब्धि और संयमलब्धि अर्थ अधिकार है। इस अधिकार में मात्र एक ही गाथा है। इस गाथा में मात्र संयमासंयम शब्द का उल्लेख मिलता है।६७ इसके चूर्णिसूत्रों में संयम को प्राप्त करने वाले जीव के परिणाम, योग, कषाय, उपयोग और लेश्या आदि कैसे होते हैं, इसकी चर्चा है।६८ यहाँ भी अधः प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण आदि का उल्लेख हुआ है,६६ किन्तु यह चर्चा भी गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होती है, तथापि इसे गुणश्रेणी से सम्बन्धित माना जा सकता है, क्योंकि विद्वानों की दृष्टि में गुणश्रेणियों की चर्चा गुणस्थान सिद्धान्त से पूर्ववर्ती है।
आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थसूत्र के मूल पाठ एवं भाष्य में गुणश्रेणियों का उल्लेख हुआ है। यतिवृषभ ने अपने चूर्णिसूत्रों में भी गुणश्रेणी की चर्चा की है। इसके पश्चात् चारित्रमोह उपशमना अर्थ अधिकार है। इस अधिकार में किस-किस कर्म का उपशमन किस प्रकार से होता है, किस अवस्था में कौन से कर्म उपशान्त होते हैं और कौनसे कर्म अनुपशान्त होते हैं इसकी चर्चा की गई है। इस चर्चा के प्रसंग में बादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय की चर्चा है। यहाँ बादरराग को अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक
१६४ कसायपाहुडसुत्त, गाथा ७० से ७२ १६५ कसायपाहुडसुत्त, गाथा ११२ १६६ कसायपाहुडसुत्त, गाथा ११४ तथा उसके चूर्णिसूत्र-११-१६ १६७ कसायपाहुडसुत्त, गाथा ११५ १६८ कसायपाहुडसुत्त, गाथा ११५, के चूर्णिसूत्र पृ. ६६८ १६६ वही पृ. ६७० १७० वही पृ.६७४
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