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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{81} कसायपाहुडसुत्त की मूलगाथाओं और उनकी प्रतिपाद्य विषयवस्तु का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि उस विभिन्न मार्गणाओं की अपेक्षा से दर्शनमोह और चारित्रमोह की विभिन्न कर्म प्रकतियों के स्थि संक्रमण, उदय, उदीरणा, उपशमन तथा क्षय की चर्चा की गई है। मूल गाथाओं की विषयवस्तु को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार का प्रतिपाद्य विषय मोहनीय कर्म की विभिन्न अवस्थाओं का विवेचन करना ही है। मूल गाथाओं में हमें कहीं भी गुणस्थान शब्द की चर्चा नहीं मिलती है। मूल गाथाओं में कुछ स्थलों पर स्थान (ठाण) शब्द का उल्लेख मिलता है, किन्तु वह हमें तो जीवस्थानों का ही वाचक लगता है। कहीं-कहीं ठाण शब्द का प्रयोग संक्रमणस्थान, बन्धस्थान आदि की अपेक्षा से भी हुआ है, गुणस्थान की अपेक्षा से नहीं हुआ है। प्रारंभ में कसायपाहुडसुत्त के विभिन्न अधिकारों की चर्चा करते हुए दर्शनमोह उपशमना अधिकार, दर्शनमोह क्षपणा अधिकार, चारित्र मोह उपशमना अधिकार, चारित्रमोह क्षपणा अधिकार आदि का उल्लेख है। इस उल्लेख में दर्शनमोह उपशमक, दर्शनमोह क्षपक, चारित्रमोह उपशमक, चारित्रमोहक्षपक, क्षीणमोह आदि अवस्थ हुआ है, किन्तु ये अवस्थाएं गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। कसायपाहुडसुत्त का प्रथम अधिकार पेज्जदोस विभक्ति है। इस अधिकार में मुख्य रूप से रागद्वेष और कषायों के स्वरूप, उनके भेद, उनकी स्थिति, उनकी तीव्रता एवं अन्तरकाल की चर्चा है ।१६३ यह स्पष्ट है कि गुणस्थान सिद्धान्त का आधार भी मोहनीय कर्म की कर्म प्रकृतियों के क्षय एवं क्षयोपशम से है। गुणस्थान सिद्धान्त में दसवें गुणस्थान तक तो प्रमुख रूप से मोहनीय कर्म की कर्म प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा एवं क्षय की चर्चा है। इस प्रकार विषयवस्तु की अपेक्षा से कसायपाहुडसुत्त एवं त में पर्याप्त समानता है, फिर भी उसे गुणस्थानों के विवेचन के रूप में नहीं समझा जा सकता है। आगे बन्ध-संक्रमण अधिकार में गति आदि चौदह मार्गणाओं में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का बन्ध-संक्रमण आदि किस रूप में होता है, इसकी चर्चा है। जिस प्रकार गुणस्थान सिद्धान्त में मोहनीय कर्म को विशेष महत्व देते हुए भी प्रासंगिक रूप से अन्य कर्मो के बन्ध, उदय, उदीरणा आदि की चर्चा हुई है, उसी प्रकार कसायपाहुडसुत्त में भी कहीं-कहीं अन्य कर्म प्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि की चर्चा पाई जाती है। फिर भी दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि जहाँ कसायपाहुड में इस चर्चा में मार्गणास्थानों को विशेष महत्व दिया है, वहीं गुणस्थान सिद्धान्त में गुणस्थानों को महत्व दिया गया है, किन्तु जैसे मार्गणाओं में सम्यक्त्व मार्गणा की चर्चा आती है, तो वहाँ मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि तथा अविरत, विरताविरत और विरत अवस्थाओं में कितने संक्रमण-स्थान होते हैं, इसकी चर्चा आई है। वहाँ कहा गया है कि मिथ्यात्व में २७, २६,२५ और २३ कर्म प्रकृतियों के ऐसे चार संक्रमण स्थान होते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि या मिश्र अवस्था में २५ और २१-ऐसे दो संक्रमण स्थान होते है। सम्यग्दृष्टि में २३ कर्म प्रकृतियों का एक संक्रमण-स्थान होता है। अविरतसम्यग्दृष्टि में २७,२६, २५, २३, २२ और २१ कर्म प्रकृतियों के छः संक्रमण-स्थान होते हैं। मिश्र अर्थात् विरताविरत में २७, २६, २३, २२ और २१-ऐसे पांच संक्रमण-स्थान होते हैं। विरत में २२ कर्म प्रकृतियों का एक संक्रमण-स्थान होता है। इस प्रकार यहाँ संक्रमण-स्थानों की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि, मिश्रदृष्टि और सम्यग्दृष्टि तथा अविरत, विरताविरत (मिश्र) और विरत-इन छः अवस्थाओं का उल्लेख आता है। यद्यपि इन गाथाओं का अर्थ करते हुए पण्डित हीरालालजी ने यहाँ गुणस्थानों की चर्चा की है, किन्तु मूल गाथाओं में गुणस्थान का कोई उल्लेख नहीं है। यद्यपि यहाँ वर्णित ये छः अवस्थाएं गुणस्थान सिद्धान्त में भी उल्लेखित है, किन्तु यहाँ सम्यग्दृष्टि और अविरत-इन दो अवस्थाओं का अलग-अलग उल्लेख है और सासादन अवस्था का कोई उल्लेख नहीं है। इस आधार पर इन गाथाओं को गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित मानना हमारी दृष्टि में योग्य प्रतीत नहीं होता है। यहाँ यह चर्चा सम्यक्त्व मार्गणा और संयम मार्गणा के आधार पर ही समझना चाहिए। इसी क्रम में उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के भी उल्लेख हैं, किन्तु हमारी दृष्टि में वे उल्लेख इस नाम से वर्णित गुणस्थानों के समरूप होते हुए भी गुणस्थानों से सम्बन्धित नहीं माने जा सकते । वे केवल मोहनीय कर्म के क्षय या उपशम की अपेक्षा से वर्णित अवस्थाएं हैं। १६३ कसायपाहुडसुत्त, गाथा ५६ से ६२, गुणधराचार्य प्रणीत, प्रकाशन : वीर शासन संघ, कलकत्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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