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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
तृतीय अध्याय........{80}
तो चौथे और पहले गुणस्थान तक जा सकता है, जबकि क्षपक श्रेणीवाला दसवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान को प्राप्त कर अन्त में तेरहवें गुणस्थान में जाकर कैवल्य प्राप्त कर लेता है, किन्तु कसायपाहुडसुत्त में आध्यात्मिक विकास यात्रा में जो श्रेणी सम्बन्धी चर्चा है, वह गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से थोड़ी भिन्न परिलक्षित होती है। इसमें जिन अवस्थाओं का चित्रण है, वे निम्न रूप में प्रस्तुत की जा सकती है -
१ दर्शनमोह उपशामक २ दर्शनमोह उपशान्त ३ दर्शनमोह क्षपक ४ दर्शनमोह क्षीण ५ चारित्रमोह उपशामक ६ चारित्रमोह उपशान्त ७ चारित्रमोह क्षपक ८ चारित्रमोह क्षीण (क्षीण कषाय ) १६२
इस प्रकार हम देखते है कि यहाँ दर्शनमोह और चारित्रमोह- दोनों के सन्दर्भ में उपशामक, उपशान्त, क्षपक और क्षीण - ऐसी चार-चार अवस्थाओं का उल्लेख है । उपशामक और उपशान्त के बाद हुई क्षपक तथा क्षीण अवस्थाओं का जो क्रम दिया गया है वह गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से थोड़ा भिन्न प्रतीत होता है। डॉ. सागरमल जैन का मानना है कि प्राचीन स्तर के ग्रन्थों में हमें उपशामक, उपशान्त, क्षपक और क्षीण- इन चार अवस्थाओं की चर्चा प्रथम दर्शनमोह के सन्दर्भ में तथा बाद में चारित्रमोह के सन्दर्भ में उत्पन्न होती हैं। कसायपाहुडसुत्त में भी यह चर्चा इसी रूप में उपलब्ध है, अतः कसायपाहुडसुत्त गुणस्थानसिद्धान्त की समग्र विकास के पूर्व की अवस्था का सूचक माना जाता है । पुनः यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कसायपाहुडसुत्त आध्यात्मिक विकास की मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व, अविरत, विरताविरत (मिश्र), विरत, चारित्रमोह उपशामक, चारित्रमोह उपशान्त, चारित्रमोह क्षपक और चारित्रमोह क्षीण तथा केवली - ऐसी ग्यारह अवस्थाओं की चर्चा करता है। इन अवस्थाओं के सन्दर्भ में वह न केवल कर्मों के बन्ध, संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन, उदय, उदीरणा आदि की चर्चा करता है, अपितु इन अवस्थाओं में उपयोग, कषाय, वेद, लेश्या, गति आदि मार्गणाओं की अपेक्षा से भी विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करता है। इस प्रकार कसायपाहुडसुत्त में गुणस्थानसिद्धान्त के विकसित स्वरूप का उल्लेख तो नहीं है, फिर भी उसे इस सिद्धान्त के विकास की पूर्व अवस्था का प्रतिपादक ग्रन्थ माना जा सकता है।
तत्त्वार्थसूत्र और कसायपाहुडसुत्त में वर्णित आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं का तुलनात्मक विवेचन करने पर हमें यह ज्ञात होता है कि कसायपाहुडसुत्त में - १ मिथ्यात्व २ मिश्र ३ सम्यक्त्व ४ अविरत ५ विरताविरत ६ विरत ७ उपशामक ८ क्षपक ६ क्षीण और १० जिन-ऐसी दस अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है, जो तत्त्वार्थसूत्र में कर्म निर्जरा की अपेक्षा से वर्णित दस अवस्थाओं में आंशिक समानता और आंशिक विभिन्नता लिए हुए है। कसायपाहुडसुत्त में जहाँ सम्यक्त्व की अपेक्षा से मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व - ऐसी तीन अवस्थाओं की तथा चारित्र की अपेक्षा से अविरत, विरताविरत और विरत - ऐसी तीन अवस्थाओं की चर्चा है, वहीं दूसरी और दर्शनमोह की अपेक्षा से दर्शनमोह उपशमक, दर्शनमोह उपशान्त, दर्शनमोह क्षपक और दर्शनमोह क्षीण तथा चारित्रमोह के अनुसार चारित्रमोह उपशमक, चारित्रमोह उपशान्त, चारित्रमोह क्षपक और चारित्रमोह क्षीण - ऐसी आठ अवस्थाओं का भी उल्लेख है । इनके अतिरिक्त जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया कि इस ग्रन्थ में सूक्ष्मसंपराय और बादरराग-ऐसी दो अवस्थाओं का भी उल्लेख पाया जाता है। यह तो स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में उपर्युक्त अवस्थाओं के आधार पर मोहनीय कर्म की बन्धयोग्य २६ तथा उदययोग्य २८ कर्म प्रकृतियों के बन्ध, संक्रमण, उदय, उदीरणा आदि को समझाया गया है । साथ ही प्रस्तुत ग्रन्थ में पूर्व निर्दिष्ट अवस्थाओं के आधार पर विविध मार्गणाओं में बन्धन की अपेक्षा से जीव की क्या स्थिति रहती है, इसे भी समझाया गया है। इस आधार पर हम इतना तो निश्चित रूप से कह सकते हैं कि प्रस्तुत ग्रन्थ में आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न मार्गणाओं के आधार पर कर्मों के बन्ध, संक्रमण, उदय, उदीरणा आदि की चर्चा है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ जीव स्थान-र्मागणा स्थान के आधार पर आध्यात्मिक विकास की विभिन्न स्थितियों का उल्लेख करता है। अतः यह गुणस्थान सिद्धांत की विस्तृत चर्चा की पूर्व स्थिति का सूचक है। इस प्रकार प्रस्तुत कृति में आध्यात्मिक विकास की इन विभिन्न अवस्थाओं में कर्म के बन्ध, संक्रमण, उदय, उदीरणा की चर्चा की गई है। १६२ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण पृ. १०, ११, लेखक - डॉ. सागरमल जैन, प्रकाशक : पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
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