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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{33} असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयतसम्यग्दृष्टि, संयतसम्यग्दृष्टि, सरागसंयमदृष्टि, वीतरागसंयमसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टि, अप्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टि- इन अवस्थाओं का चित्रण हुआ है, किन्तु यह समग्र चित्रण गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित है, यह कहना कठिन है, क्योंकि यह समस्त चर्चा क्रियास्थानों को लेकर की गई है। (१/२/६७) इन सब अवस्थाओं के चित्रण में कहीं भी न तो गुणस्थानों के स्वरूप की दृष्टि से कोई चर्चा है, न ही कर्म के बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, बन्ध-विच्छेद, क्षय आदि को लेकर कोई चर्चा की गई है। अतः इन अवस्थाओं को गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित कहना कठिन है। भगवतीसूत्र में हमें नवें शतक के ४६ वें एवं ६८वें सूत्र में अपूर्वकरण शब्द उपलब्ध होता है, किन्तु दोनों ही स्थान पर अपूर्वकरण का सम्बन्ध तीन करणों से ही सम्बन्धित प्रतीत होता है। वहाँ कहा गया है कि प्रशस्त अध्यवसायों के वृद्धिगत होते हुए सर्वप्रथम अनन्त, नरकभव ग्रहण करने सम्बन्धी कर्मों की विसंयोजना करता है। अनन्त, तिर्यंच योनि के भव ग्रहण करने की विसंयोजना करता है। अनन्त, मनुष्य योनि के भव ग्रहण करने की विसंयोजना करता है। अनन्त, देव योनि के भव ग्रहण करने की विसंयोजना करता है। इस प्रकार के नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति सम्बन्धी उत्तर प्रकृतिओं की विसंयोजना करता हुआ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का, तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानीय क्रोध, मान, माया लोभ का, उसके बाद प्रत्याख्यानीय क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करता है। उसके पश्चात् संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है। पांच ज्ञानावरण, नौ प्रकार के दर्शनावरण का क्षय करता है, फिर पांच प्रकार के अन्तराय कर्म का क्षय करता है। इसप्रकार से मोहनीय आदि कर्मरज को विकीर्ण करता हुआ अपूर्वकरण में अनुप्रविष्ट होता है और फिर अनन्त, अनुत्तर, निर्बाध, निरावरण, प्रतिकूल केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करता है। यद्यपि यहाँ कर्मप्रकृतियों के क्षय की चर्चा है, लेकिन यहाँ केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति के पूर्व अपूर्वकरण में प्रविष्ट होने की बात कही गई है। अतः इसका सम्बन्ध किसी प्रकार से गुणश्रेणियों के साथ जोड़ा जा सकता है, किन्तु गुणस्थान सिद्धान्त के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है। ज्ञानावरण आदि कर्मों का क्षय करने के बाद अपूर्वकरण में प्रविष्ट होने की बात समुचित नहीं लगती है, क्योंकि गुणस्थान सिद्धान्त में अपूर्वकरण संज्वलन कषायों के तथा ज्ञानावरण आदि के उदय और सत्ता में रहने पर ही होता है। पुनः भगवतीसूत्र में ४१ वें शतक के ८४ वें सूत्र में अपूर्व शब्द आया है, किन्तु वहाँ इस शब्द का प्रयोग भगवान के वचन की अपूर्वता को बताने के लिए किया गया है, अतः इसका सम्बन्ध गुणस्थान सिद्धान्त से नहीं है। भगवतीसूत्र के २५ वें शतक के ६०६३ सूत्र में अनियट्टि शब्द उपलब्ध होता है, किन्तु यहाँ इस शब्द का प्रयोग शुक्लध्यान के तृतीय पद अनिवृत्तसूक्ष्मक्रिया के अर्थ में हुआ है। अतः इस शब्द का सम्बन्ध अनिवृत्तिकरण गुणस्थान से नहीं है। भगवतीसूत्र में अनेक स्थलों पर सूक्ष्मसंपराय शब्द उपलब्ध होता है। सर्वप्रथम आठवें शतक के १४३ वें सूत्र में चारित्रलब्धि की चर्चा करते हुए सूक्ष्मसंपराय चारित्रलब्धि का प्रयोग हुआ है। उसके पश्चात् २५ वें शतक के ३०४ और ३०६ वें सूत्र में पुलाक चारित्र वाले को कौन-कौन से चारित्र होते हैं और कौन-कौन से चारित्र नहीं होते हैं, इसकी चर्चा में यह बताया गया है कि पुलाक चारित्र वाले मुनि को सूक्ष्मसंपराय चारित्र नहीं होता है। इसीप्रकार जब कषाय कुशील चारित्र के बारे में पूछा गया तो उसके उत्तर में कहा गया है कि कषाय कुशील चारित्रवाले को सूक्ष्मसंपराय चारित्र होता है, किन्तु आगे यह बताया गया है कि निग्रंथ चारित्रवाले को सूक्ष्मसंपराय चारित्र नहीं होता है। इसी २५ वें शतक में आगे पाँच प्रकार के संयतों की चर्चा करते हुए सूक्ष्मसंपराय का उल्लेख हुआ है, और उसमें आगे यह भी बताया है कि सूक्ष्मसंपराय संयत दो प्रकार के होते हैंसंकिलश्यमान सूक्ष्मसंपराय संयत और विशुद्धमान सूक्ष्मसंपराय संयत। पुनः वेद-पद की चर्चा में यह कहा गया है कि सूक्ष्मसंपराय चारित्र वाला मुनि सवेद होता है। इसीप्रकार राग-पद की चर्चा में यह कहा गया है कि सूक्ष्मसंपराय संयत सराग होता है। इसप्रकार भगवतीसूत्र में पाँच प्रकार के निग्रंथ और पाँच प्रकार के चारित्र को लेकर जो चर्चा हुई है, उसमें सूक्ष्मसंपराय चारित्र और सूक्ष्मसंपराय संयत-इन दो रूपों में, सूक्ष्मसंपराय शब्द का अनेकशः प्रयोग हुआ है। इस चर्चा में संयमपद, पर्यायपद, योगपद, उपयोगपद, कषायपद, लेश्यापद, परिणामपद, बन्धपद, वेदनापद, उदीरणापद, संज्ञापद, आहारपद, कालपद, अन्तरपद, समुद्घातपद, Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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