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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.......
द्वितीय अध्याय....{34} भावपद, अल्पबहुत्वपद आदि में सूक्ष्मसंपराय शब्द का उल्लेख हुआ है। ये सभी उल्लेख सूक्ष्मसंपराय चारित्रवर्ती आत्मा में कषाय, लेश्या, परिणाम, कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि की क्या स्थिति होती है, इसकी चर्चा से सम्बन्धित है। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान की चर्चा में भी ये सभी प्रश्न उठाए जाते हैं, किन्तु जहाँ तक भगवतीसूत्र का प्रश्न है सूक्ष्मसंपराय का यह उल्लेख सूक्ष्मसंपराय चारित्र के ही सम्बन्ध में है। इस समग्र विवेचन में कहीं भी गुणस्थान शब्द का कोई उल्लेख नहीं है। यदि यह चर्चा गुणस्थान से सम्बन्धित होती, तो कहीं भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग अवश्य होता । इसीप्रकार हमारी दृष्टि में भगवतीसूत्र में आए सूक्ष्मसंप शब्द, सूक्ष्मसंपराय चारित्र से ही सम्बन्धित प्रतीत होते हैं और इस चर्चा में लेश्या, कषाय आदि का अवतरण भी सूक्ष्मसंपराय चारित्र को लेकर ही हुआ है।
स्थान सिद्धान्त में ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशान्तमोह के नाम से और बारहवाँ गुणस्थान क्षीणमोह के नाम से जाना जाता । भगवतीसूत्र में उपशान्तमोह और क्षीणमोह शब्द का प्रयोग तो केवल एक ही बार हुआ है, किन्तु उपशान्त एवं क्षीण शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है। यहाँ यह विचार करना आवश्यक है कि भगवतीसूत्र में प्रयुक्त उपशान्तमोह शब्द एवं क्षीणमोह शब्द, उपशान्तमोह गुणस्थान एवं क्षीणमोह गुणस्थान के वाचक हैं या नहीं? पाँचवें शतक के १०७ वें सूत्र में यह प्रश्न पूछा गया है अनुत्तरविभाग के देव उदीरणमोह है या उपशान्तमोह है या क्षीणमोह है ? इसके उत्तर में भगवान ने कहा है- गौतम, वे न तो उदीरणमोह है और न ही क्षीणमोह है, अपितु उपशान्तमोह है । यहाँ हम देखते हैं कि भगवतीसूत्र का यह समग्र प्रसंग अनुत्तरविभाग के देवों के सन्दर्भ में है । अतः वहाँ उपशान्तमोह एवं क्षीणमोह अवस्थाओं का उल्लेख किया गया हैं, जो गुणस्थान की दृष्टि से नहीं है । पुनः यहाँ केवल उपशान्तमोह और क्षीणमोह शब्द का प्रयोग ही नहीं हुआ है, उदीरणमोह का भी प्रयोग हुआ
इससे यह प्रसंग गुणस्थान से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होता है। भगवतीसूत्र में अन्यत्र भी उपशान्त और क्षीण शब्द का प्रयोग हुआ है, वह सामान्यरूप से उपशान्त एवं क्षीण स्थितियों का ही सूचक है। कर्मप्रकृतियों के सन्दर्भ में भी इस चर्चा में उनके उपशान्त एवं क्षीण होने का ही उल्लेख आया है। अतः उपशान्त और क्षीण शब्द गुणस्थानवाची प्रतीत नहीं होता है।
भगवतीसूत्र में सयोगी और अयोगी शब्दों के उल्लेख अनेक स्थलों पर उपलब्ध होते हैं, किन्तु यहाँ सयोगी और अयोगी शब्द क्रमशः उन जीवों के लिए प्रयुक्त हुए हैं, जिनमें मन, वचन और काया की प्रवृत्ति होती है और जिनमें मन, वचन और काया की प्रवृत्ति नहीं होती है। अतः सयोगी और अयोगी शब्द का सम्बन्ध गुणस्थान से प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि गुणस्थानों में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली- ये दो अवस्थाएं होती हैं । हमें भगवतीसूत्र में कहीं सयोगीकेवली और अयोगीकेवली के प्रयोग उपलब्ध नहीं हुए हैं। भगवतीसूत्र में सयोगी और अयोगी शब्द का प्रयोग उनके सामान्य अर्थ में ही हुआ है। उदाहरण के लिए भगवतीसूत्र के छठे शतक के ४७ वें सूत्र में ज्ञानावरणीय कर्म का वेध नहीं होता है। इसी प्रकार आठवें शतक के १७६ वें सूत्र में ज्ञानी और अज्ञानी की चर्चा के प्रसंग में यह प्रश्न उठाया गया है कि सयोगी में कितने ज्ञान होते हैं? इसके उत्तर में कहा गया है कि काययोग की चर्चा के समान ही सयोगी में पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान होते हैं । इसीप्रकार पाँच ज्ञानों की चर्चा में भी यह बताया गया है कि सयोगी में मति आदि पाँचों ज्ञान पाए जाते हैं। अयोगी में मात्र केवलज्ञान होता है। इसीप्रकार नवें शतक में असोच्चा केवली सयोगी होते हैं। इसी क्रम में संज्ञाओं की चर्चा लेकर यह कहा गया है कि सयोगी संज्ञी और असंज्ञी दोनों ही होते हैं, किन्तु अयोगी जीव न संज्ञी होते हैं और न असंज्ञी होते हैं । इसीप्रकार २५ वें शतक में पाँच प्रकार के निर्ग्रथ की चर्चा में लाक सयोगी होता है, अयोगी नहीं होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवतीसूत्र में जहाँ भी, जिस-जिस सन्दर्भ में, सयोगी और अयोगी की चर्चा आई है, वहाँ उसका सम्बन्ध मन, वचन, काया की प्रवृत्ति से युक्त अथवा मन, वचन, काया की प्रवृत्ति से रहित सामान्य जीवों की चर्चा के प्रसंग में ही इन शब्दों का प्रयोग हुआ है । फलतः निष्कर्ष यह निकलता है कि भगवतीसूत्र में सयोगी और अयोगी की जो चर्चा है, उसका सम्बन्ध सयोगी केवली गुणस्थान और अयोगी केवली गुणस्थान से नहीं है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवतीसूत्र में गुणस्थान सूचक अनेक शब्द पाए जाते हैं, किन्तु इसमें उन शब्दों का प्रयोग अपने सामान्य अर्थ में ही हुआ है, गुणस्थानों के अर्थ में नहीं हुआ है। सम्पूर्ण ग्रन्थ में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि,
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