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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय....{35} विरताविरत, विरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगी और अयोगी आदि जो शब्द उपलब्ध होते हैं, वे उन अवस्थाओं के सूचक हैं किन्तु गुणस्थान के सूचक नहीं हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ में हमें कहीं भी न तो स्वतन्त्ररूप से और न इन अवस्थाओं के साथ गुणस्थान शब्द का प्रयोग मिला है। अतः यह निर्णय करना कठिन है कि भगवतीसूत्र में गुणस्थान के परिचायक कुछ शब्दों को देखकर यह कल्पना कर ली जाए कि भगवतीसूत्र में गुणस्थानों का विवेचन है। हमारी दृष्टि में ऐसा मानना दूर की कौड़ी लेने के समान ही होगा। ६. ज्ञाताधर्मकथा और गुणस्थान :____ अंग-आगमों में ज्ञाताधर्मकथासूत्र को छठे अंगसूत्र के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके नाम से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि इसमें ज्ञातृवंशीय भगवान महावीर द्वारा कही हुई धर्मकथाएँ हैं। वर्तमान में ज्ञाताधर्मकथासूत्र के दो श्रुतस्कंध मिलते हैं, किन्तु प्राचीन उल्लेखों में इसके एक श्रुतस्कंध और उन्नीस अध्यायों का उल्लेख उपलब्ध होता है। इन कथाओं में अधिकांश कथाएँ शिक्षा की दृष्टि से ही कही गई हैं। इन कथाओं को कहने का मुख्य लक्ष्य यह है कि साधक इन कथाओं के माध्यम से जीवन में कुछ शिक्षाएँ ग्रहण करें। अनेक ग्रन्थों के अन्त में तो भगवान महावीर ने स्वयं ही कथा के हार्द को स्पष्ट करते हुए यह बताया है कि इस कथा से साधक को क्या शिक्षा लेनी चाहिए। उदाहरण के रूप में मयूर के अंडे सम्बन्धी कथा से यह शिक्षा मिलती है कि दृढ़ आस्था और विश्वास से जो काम किए जाते हैं, वे फलदायक होते हैं, और शंका से युक्त व्यक्ति के यत्न निष्फल हो जाते हैं। कछुए के दृष्टान्त से यह समझाया गया है कि इन्द्रिय के विषयों की ओर भागनेवाला व्यक्ति विनाश या मृत्यु को प्राप्त होता है, जबकि जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में रखता है, वह अपने संयमी जीवन की रक्षा करने में समर्थ होता है । तुम्बे के दृष्टान्त से यह समझाया गया है कि आत्मा कर्म से भारी और हल्की होकर किस प्रकार संसाररूपी समुद्र में डूबती और तैरती है। मेघकुमार की कथा यह बताती है कि व्यक्ति को छोटी-छोटी आपदाओं में विचलित नहीं होना चाहिए। द्रौपदी की कथा निदान के कटु परिणामों की चर्चा करती है, तो भगवान मल्लिनाथ की कथा सांसारिक भोगों की निःसारता और शरीर की अशुचिता को प्रकट करती है। इसप्रकार यह कथाग्रन्थ भगवान महावीर द्वारा कही गई शिक्षाप्रद कथाओं का एक संकलन है। यह एक प्राचीन ग्रन्थ है। इसका उल्लेख श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों परम्पराओं में मिलता है। प्रस्तुत प्रसंग में हमारा मुख्य प्रयोजन तो गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी अवधारणा की खोज करना है, इसीलिए ज्ञाताधर्मकथासूत्र की विषयवस्तु के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा नहीं करते हुए, केवल यह देखने का प्रयास करेंगे कि इस ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी कोई संकेत उपलब्ध है या नहीं? ज्ञाताधर्मकथा में विरत, अविरत, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, उपशान्त, क्षीण-ऐसे कुछ शब्द मिलते हैं, जिन्हें देखकर . सामान्य बुद्धि यह कल्पना कर सकता है कि ज्ञाताधर्मकथा में गुणस्थानों की कोई चर्चा रही हुई है, किन्तु ज्ञाताधर्मकथा में प्रयुक्त इन शब्दों से सम्बन्धित स्थलों का अवलोकन करने पर हमें यह ज्ञात होता है कि उससे ये शब्द अपने सामान्य अर्थ में ही प्रयुक्त है, गुणस्थानों के सन्दर्भ में नहीं। उदाहरण के रूप में प्रथम मेघकुमार नामक अध्ययन में जो उवसंत शब्द आया है, वह दावानल के शांत हो जाने के सन्दर्भ में है, न कि उपशान्त मोह के अर्थ में । ज्ञाताधर्मकथा के चौदहवें तैतली पुत्र नामक अध्ययन में प्रयुक्त अपूर्वकरण शब्द ऐसा है, जो अपने सन्दर्भ के आधार पर प्रथम दृष्टि में गुणस्थान से सम्बन्धित प्रतीत होता है। यह कहा गया है कि उस तैतलीपुत्र नामक अणगार के शुभ परिणामों और प्रशस्त अध्यवसायों से आत्मविशुद्धि करते हुए आवरणीय कर्मों के क्षयोपशम द्वारा कर्मरज से रहित होकर अपूर्वकरण में प्रवेश करके केवलज्ञान तथा केवलदर्शन को प्राप्त हुआ। यहाँ भी हम देखते हैं कि अपूर्वकरण शब्द का यह प्रयोग भगवती के समान ही केवलज्ञान और केवलदर्शन के उत्पन्न होने कि पूर्व अवस्था के रूप में किया गया है। इसप्रकार इसका सम्बन्ध गुणश्रेणियों में किए जाने वाले तीन करणों से ही प्रतीत होता है, यह गुणस्थान की अवधारणा का सूचक नहीं है। पुनः सम्पूर्ण ज्ञाताधर्मकथा में न तो स्वतन्त्र रूप से और न ही इन शब्दों के साथ गुणस्थान शब्द ६५ वही, भाग-३, नायाधम्मकहाओ. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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