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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
द्वितीय अध्याय........{36} का प्रयोग देखा जाता है। अतः यह निर्णय करना कठिन है कि ज्ञाताधर्मकथा में गुणस्थान सिद्धान्त उपस्थित है। ७. उपासकदशा और गुणस्थान :
अंग-आगमों में उपासकदशा का क्रम सातवाँ है। सामान्यतया आगम साहित्य का अवलोकन करने पर यह प्रतीत होता है कि सभी आगमविषय का वर्ण्यविषय मुनि आचार से ही सम्बन्धित रहा है। उपासकदशा ही मात्र एक ऐसा आगम ग्रन्थ है, जो भगवान महावीर के दस उपासकों के जीवन का विवरण प्रस्तुत करने के साथ ही उपासकों के आचार-सम्बन्ध में विस्तार से प्रकाश डालता है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से श्रावकों की जीवनशैली का पता तो चलता ही है, किन्तु इसके साथ ही उनके आचार-सम्बन्धी व्यवस्थाओं की प्रामाणिक जानकारी भी उपलब्ध हो जाती है। उपासकदशा में श्रावक के बारह व्रतों का सम्यक् स्वरूप तो विश्लेषित है ही, इसके अतिरिक्त इसमें उन बारह व्रतों के अतिचारों अर्थात् उनमें लगनेवाले संभावित दोषों की भी चर्चा की गई है, और यह निर्देशित किया गया है कि श्रावक को उन दोषों से बचने का प्रयास करना चाहिए। बारह व्रतों की इस चर्चा के पश्चात् श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का भी इसमें उल्लेख उपलब्ध होता है। सम्पूर्ण आगम साहित्य में दशाश्रुतस्कंध को छोड़कर उपासकदशा के अतिरिक्त कहीं भी श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का चित्रण नहीं मिलता है। इन प्रतिमाओं के चित्रण से ज्ञात होता है कि श्रावक भी, अपनी साधना में क्रमशः विकास करता हुआ, किस प्रकार श्रमण-जीवन के निकट पहुँच जाता है। इस ग्रन्थ की एक अन्य यह भी विशेषता है कि दस श्रावकों के जीवन के अन्त में उन्हें समाधिमरण स्वीकार करते हुए प्रस्तुत किया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि समाधिमरण श्रमण और गृहस्थ दोनों के लिए भी आचरणीय रहा है। समाधिमरण के इन प्रसंगों में श्रावकों की दृढ़ धर्मश्रद्धा का भी परिचय मिलता है। इसप्रकार आगम-साहित्य श्रावकों की धर्मसाधना से सम्बन्धित एक प्रमुख
प्रस्तुत प्रसंग में हमारी गवेषणा का मुख्य विषय तो आगम साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीजों की खोज करना ही है। अतः इस ग्रन्थ की विषयवस्तु की चर्चा के विस्तार में न जाकर केवल यह देखने का प्रयास करेंगे कि क्या इस आगमग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी कोई संकेत उपलब्ध है। गुणस्थान सिद्धान्त की अपेक्षा से ये सभी उपासक संयतासंयत या देशविरति गुणस्थान की कोटि में माने जाते हैं, फिर भी उसमें कहीं भी गुणस्थान की अपेक्षा से उनके पद को सूचित नहीं किया गया है। ८. अन्तकृतदशा और गुणस्थान :
अंग-आगमों में अन्तकृत्दशा आठवाँ अंग-आगम है। अन्तकृत् शब्द का तात्पर्य है कि जिन साधकों ने अपने जीवन के अन्तिम क्षणों में कैवल्य और मुक्ति की प्राप्ति की हो, वे अन्तकृत् कहे जाते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में भगवान अरिष्टनेमी और भगवान महावीर के शासन के ऐसे ही साधकों के जीवन का चित्रण है। वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृत्दशा में आठ वर्ग और नब्बे अध्याय है, किन्तु स्थानांगसूत्र में जहाँ दस दशाओं का विवेचन है, वहीं अन्तकृत्दशा के मात्र दस अध्ययन ही कहे गए हैं। इस ग्रन्थ में मुख्यरूप से वासुदेव-कृष्ण के परिवार के अनेक व्यक्तियों द्वारा, दीक्षा ग्रहण कर, मोक्ष प्राप्ति के उल्लेख हैं। इस प्रसंग में उनके लघुभ्राता गजसुकुमाल की क्षमाभावना का चित्रण अत्यन्त मार्मिक है। भगवान महावीर के शासन में दीक्षित साधकों में अर्जुनमाली, एवंताकुमार और राजा श्रेणिक की पत्नियों की तपसाधना सम्बन्धी विवरण भी प्रेरणादायक है। वैसे ये सम्पूर्ण ग्रन्थ कथा एवं चरित्र-चित्रण से युक्त हैं, किन्तु इसमें तपसाधना आदि का भी विस्तृत विवरण उपलब्ध हो जाता है। यहाँ हमारा विवेच्य विषय तो इस आगम ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई संकेत या विवरण की खोज करना ही है। इसीलिए आगे हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई विचारणा है या नहीं?
जहाँ तक अन्तकृत्दशा का प्रश्न है, उसके तृतीय वर्ग के गजसुकुमाल नामक अष्टम अध्ययन में अपूर्वकरण का उल्लेख हुआ है। वहाँ यह कहा गया है कि उन गजसुकुमाल अणगार ने उस कठिन वेदना को समभावपूर्वक सहन करते हुए, शुभ परिणामों
८६ वही, भाग-३, उवासगदसाओ ८७ वही, भाग-३, अन्तगडदसाओ.
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