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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{32} अवस्थाओं की कोई अवधारणा नहीं होती, तो फिर इन शब्दों का प्रयोग भी नहीं होना था। चाहे गुणस्थानों के रूप में इन तेरह अवस्थाओं का उल्लेख न हुआ हो, किन्तु जीव की इन तेरह अवस्थाओं से उनका परिचय तो अवश्य रहा होगा। जब हम यह कहते हैं कि भगवतीसूत्र में गुणस्थानों सम्बन्धी तेरह अवस्थाओं के नाम होते हुए भी उसमें गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का अभाव है, तो इसका तात्पर्य यह है कि उसमें न तो गुणस्थानों के स्वरूप की कोई चर्चा है और न ही किस गुणस्थान में किन-किन कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता, बन्ध-विच्छेद और क्षय आदि होते हैं, इसकी कोई चर्चा है। जहाँ तक अवस्थाओं के नाम मिलने का प्रश्न है, वे प्रासंगिक रूप से ही वहाँ आए हैं। इस विषय में हम प्रत्येक अवस्था के सम्बन्ध में मिलनेवाले उल्लेखों के आधार पर संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत करेंगे। मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि - भगवतीसूत्र में मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टिक शब्द का उल्लेख अनेक स्थलों पर अनेक सन्दर्भो में मिलता है। जैसे ग्यारहवें शतक में यह प्रश्न पूछा गया है कि हे भगवन्! जीव मिथ्यादृष्टि होते हैं या सम्यग्दृष्टि होते हैं? या सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं? इसके उत्तर में कहा गया है कि जीव नो सम्यग्दृष्टि, नो मिथ्यादृष्टि और नो सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं। तब २४ वें शतक में यह पूछा गया है कि एक समय की स्थिति में कौन-से जीव उत्पन्न होते हैं? उत्तर में कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं, सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते हैं। इसी प्रकार एक समय में नारकीओं में कौन-से जीव उत्पन्न होते है? सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि? उत्तर में पुनः यही कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि ही उत्पन्न होते हैं। सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते हैं। इसी प्रकार पृथ्वीकाय आदि में भी उत्पत्ति के क्रम को लेकर भी ऐसे ही प्रश्न पूछे जाते रहे हैं। जब पृथ्वीकाय के सम्बन्ध में यह पूछा गया कि उसमें सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि में से कौन-से जीव उत्पन्न होते हैं, तो कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं, परन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते है। इसप्रकार हम देखते हैं कि भगवतीसूत्र में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि- इन तीन अवस्थाओं का उल्लेख तो है, किन्तु उनके सम्बन्ध में गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं मिलती है, एक सामान्य अवस्था मात्र ही उनकी चर्चा की गई है। इसी प्रकार अविरत, विरताविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत अवस्थाओं के भी उल्लेख है। उदाहरण के रूप में जब संसारी जीवों के भेदों की चर्चा आई, तो कहा गया है कि संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं- संयत और असंयत। पुनः संयत दो प्रकार के हैं- प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत। पुनः जब यह पूछा गया कि प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत अवस्था का काल कितना होता है? तो उत्तर में कहा गया कि प्रमत्तसंयत अवस्था का काल जघन्य में एक समय और उत्कृष्ट में कुछ कम पूर्वकोटि है। इसीप्रकार जब यह पूछा गया कि अप्रमत्तसंयत अवस्था का काल कितना है? तो यह कहा गया कि अप्रमत्तसंयत अवस्था का काल जघन्य में अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट में देशोनपूर्वकोटि है। इसी प्रकार जब यह पूछा गया कि जीव विरत होते हैं या अविरत होते हैं? या विरताविरत होते हैं? उत्तर में कहा गया कि विरत भी होते हैं, विरताविरत भी होते हैं और अविरत भी होते हैं। __ भगवतीसूत्र में विरत अथवा संयत पद के प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ऐसे दोनों विभाग भी उपलब्ध हैं। (म. १/१/३४) प्रस्तुत सूत्र में लेश्याओं के सन्दर्भ में प्रमतसंयत और अप्रमत्तसंयत की चर्चा हुई है। इसी क्रम में भगवतीसूत्र में यह भी चर्चा आई है कि स्वआरंभ, परआरंभ और तदुभयआरंभ में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत के कौन-से आरंभ स्थान होते हैं? वहाँ यह कहा गया है कि अप्रमत्तसंयत; स्वआरंभ, परआरंभ और तदुभयआरंभ से रहित होते हैं। प्रमत्तसंयत भी अशुभ योग रूप स्वआरंभ, परआरंभ और तदुभयआरंभ करते हैं, किन्तु शुभ योग रूप स्वआरंभ, परआरंभ और तदुभयआरंभ नहीं करते हैं। भगवतीसूत्र में प्रथम शतक में मनुष्यों का वर्गीकरण करते हुए सर्वप्रथम यह कहा गया है कि वे मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि होते है। पुनः सम्यग्दृष्टि के तीन विभाग किए गए हैं- असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयतसम्यग्दृष्टि और संयतसम्यग्दृष्टि। पुनः संयमो के दो विभाग किए गए हैं -सराग संयम और वीतराग संयम। पुनः सरागसंयम के दो विभाग किए गए हैं-प्र अप्रमत्त संयम। इसप्रकार हम देखते हैं कि भगवतीसूत्र में मनुष्यों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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