________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
द्वितीय अध्याय........{31) सकते हैं कि चाहे गुणस्थान नामकरण परवर्ती हो, लेकिन उसके पूर्व या कम से कम वल्लभीवाचना के पूर्व इन में से कुछ अवस्थाओं के उल्लेख मिलते हैं। समवायांग के उपर्युक्त चौदहवें समवाय के अतिरिक्त प्रकीर्णक समवाय (परिशिष्ट) के १६४ वें सूत्र में आहारक शरीर की चर्चा करते हुए मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टि, अप्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टि नामों का उल्लेख भी समवायांग में उपलब्ध होता है, किन्तु यहाँ पर इन अवस्थाओं की चर्चा आहारक शरीर सम्बन्धी चर्चा के प्रसंग में हुई है। अतः इसे स्पष्ट रूप से गुणस्थान से सम्बन्धित कहना कठिन है। ५. भगवतीसूत्र" और गुणस्थान सिद्धान्त :
अंग-आगमों में भगवतीसूत्र को पाँचवा अंग माना गया है। इसका एक अन्य नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति भी मिलता है। अंग-आगमों में आकार की दृष्टि से और विवेच्य विषयों की दृष्टि से यह एक विशाल ग्रन्थ है। वर्तमान में भी इस ग्रन्थ का आकार पन्द्रह हजार (१५०००) श्लोक परिमाण है। यह ग्रन्थ शतकों में विभाजित है। शतकों को पुनः उद्देशों में विभाजित किया गया है। वर्तमान में इसमें इकतालीस (४१) शतक उपलब्ध है, जो अनेक उद्देशों में विभक्त किए गए हैं। यह माना जाता है कि इस ग्रन्थ में भगवान महावीर ने गौतम गणधर के छत्तीस हजार (३६०००) प्रश्नों के उत्तर दिए हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थ में विषय वैविध्य है। वस्तुतः जैनदर्शन का कोई भी विषय ऐसा नहीं है, जिसकी चर्चा इस ग्रन्थ में संक्षेप में या विस्तार से नहीं की गई है। यही कारण है कि जैन समाज में इसके प्रति अत्यधिक पूज्यता का भाव है और इसे "भगवती” ऐसा आदर्शसूचक नाम दिया गया है। विद्वानों ने इस ग्रन्थ में प्राचीनता की दृष्टि से अनेक स्तर माने हैं। इस ग्रन्थ में नंदीसूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र और प्रज्ञापनासूत्र आदि के सन्दर्भ भी मिलते हैं। इस आधार पर कुछ विद्वानों की मान्यता है कि यह परवर्तीकालीन है, किन्तु वास्तविकता इससे भिन्न है। वस्तुतः वल्लभीवाचना के समय जब इसका सम्पादन किया गया तो इसके आकार को सीमित करने के लिए जो विषय अन्य आगमों में विस्तार से विवेचित है, उन्हें उन-उन स्थलों पर देख लेने के लिए निर्देश किया गया है। इसकी विषयवस्तु का गम्भीर अध्ययन करके विद्वानों ने यह भी स्थापित किया है कि इस ग्रन्थ में विषयवस्तु की प्राचीनता की अपेक्षा अनेक स्तर है। इसकी अधिकांश चर्चाएं तो भगवान महावीर की समकालीन प्रतीत होती है। प्रस्तुत प्रकरण में हमारा मुख्य उद्देश्य तो भगवतीसूत्र में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा की चर्चा करना है। यद्यपि भगवतीसूत्र में हमें कहीं भी गुणस्थान शब्द उपलब्ध नहीं हुआ है, किन्तु आश्चर्य का विषय यह है कि इस ग्रन्थ में गुणस्थानों की विविध अवस्थाओं से सम्बन्धित लगभग बारह अवस्थाओं का नाम निर्देश उपलब्ध होता है। अग्रिम पृष्ठों में हम यह विचार करने का प्रयास करेंगे कि गणस्थानों से सम्बन्धित ये अवस्थाएं कहाँ और किस रूप में उल्लेखित हैं।
भगवतीसूत्र में जैनधर्म-दर्शन से सम्बन्धित विविध विषयों और उनके सभी पक्षों की चर्चा हुई है, किन्तु यह आश्चर्य का विषय है कि उसमें भी कहीं गुणस्थान शब्द अथवा गुणस्थानों से सम्बन्धित विवरण नहीं मिलता है। विद्वानों ने भगवतीसूत्र में कालक्रम की दृष्टि से अनेक स्तर मानें हैं, फिर भी उसमें गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का अनुलेख इस बात को पुष्ट करता है कि भगवतीसूत्र के इन विविध स्तरों के रचनाकाल तक भी जैनदर्शन में गुणस्थान सिद्धान्त की सुस्पष्ट चर्चा प्रारम्भ नहीं हुई थी, क्योंकि यदि उस काल तक गुणस्थान सिद्धान्त की कोई चर्चा प्रचलित होती तो भगवतीसूत्र में कहीं न कहीं उसका निर्देश अवश्य मिलता। चाहे भगवतीसूत्र में गुणस्थान शब्द और गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा का अभाव हो, फिर भी भगवतीसूत्र के आलोड़न में हमें उसमें मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, अविरत, विरयाविरय (विरताविरत), प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली- ऐसे गुणस्थान वाचक तेरह नाम प्राप्त हो जाते हैं। इसप्रकार भगवतीसूत्र में गुणस्थान शब्द और गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विचारणा का अभाव होते हुए भी चौदह गुणस्थानों में से तेरह गुणस्थानों का नाम उपलब्ध होना एक महत्वपूर्ण घटना है, क्योंकि यदि उस युग में इन तेरह
८४ वही, भाग-२, भगवई.
Jain Education Intemational
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org