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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
सप्तम अध्याय........{441} अन्य ग्रन्थों का ही ज्यादा सहारा लिया गया है । द्वितीय अध्याय में अवश्य ही आध्यात्मिक विकास के चतुर्दश सोपान के रूप में गुणस्थानों के स्वरूप का निर्देश हुआ है, किन्तु इसमें भी विशेष चर्चा श्रावक और मुनि जीवन के आचार-विचार को लेकर अधिक है। तृतीय अध्याय गुणस्थानों में कर्म से सम्बन्धित है । इसमें कर्मसिद्धान्त का ही विवेचन अधिक हुआ है । मात्र इस अध्याय के अन्त में गुणस्थान और कर्म का सम्बन्ध एक विभाग ही ऐसा है, जहाँ लेखिका ने गुणस्थानों के साथ कर्मों के सम्बन्ध को स्पष्ट किया है । चतुर्थ अध्याय में गुणस्थान और ध्यान को लेकर चर्चा की गई है । इस प्रकार पंचम अध्याय में गुणस्थान और समाधि को लेकर विवेचन प्रस्तुत किया गया है । गुणस्थान और ध्यान नामक अध्ययन के प्रारम्भ में तो ध्यान के स्वरूप का ही विवरण किया गया है, किन्तु इस अध्याय के अन्त में यह विचार अवश्य किया गया है कि किन गुणस्थानों में कौन-सा ध्यान सम्भव होता है, किन्तु यह चर्चा अत्यन्त संक्षिप्त है । गुणस्थान और समाधि नामक अध्याय में सामान्य विवेचन तो समाधिमरण और संलेखना के सन्दर्भ में ही है । मात्र अध्याय के अन्त में यह कहा गया है कि गुणस्थानों के साथ समाधि का घनिष्ट सम्बन्ध है, किन्तु इस अध्याय में समाधिमरण से गुणस्थान का कोई विशेष सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है । प्रस्तुत कृति का षष्ठ अध्याय गुणस्थानों में कर्म और काल की क्रिया तथा प्रतिक्रिया निश्चित रूप से गुणस्थान सम्बन्धी विवेचना से सम्बन्धित है और इसमें गुणस्थानों का और गुणस्थानों में कर्म के बन्ध, उदय, सत्ता आदि के सम्बन्ध में विस्तृत विचार हुआ है । सप्तम अध्याय गुणस्थानों में आत्मदशा और आध्यात्मदशा से सम्बन्धित है। इसमें सम्यग्दर्शन के आठ अंग तथा चारित्र के पांच प्रकार की विशेष रूप से चर्चा हुई है। अष्टम अध्याय में अन्य भारतीय दर्शनों में गुणस्थानों की समकक्ष भूमिकाओं की संक्षिप्त तुलनात्मक चर्चा की गई है। इसमें सर्वप्रथम पंडित सुखलालजी के द्वारा योगवाशिष्ठ के आधार पर ज्ञान और अज्ञान की चौदह अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। उसी के आधार पर तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। आश्चर्य यह है कि इसमें इस तुलना के प्रारम्भ में उत्पत्ति प्रकरण नामक ग्रन्थ को आधार बनाकर इस तुलना की चर्चा की गई है, जबकि उत्पत्ति प्रकरण नामक कोई ग्रन्थ नहीं है, अपितु योगवाशिष्ठ का ही एक प्रकरण है । चूंकि पंडित सुखलालजी ने सन्दर्भ में उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ऐसा उल्लेख किया था । उसी आधार पर उन्होंने यह उल्लेख कर दिया और मूल शोधकर्ता का भी कहीं उल्लेख नहीं किया, किन्तु इस अन्तिम अध्याय में उन्होंने शिवज्ञानबोध के आधार पर आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं की और कार्लगुस्ताव हयुंग के आधार पर आध्यात्मिक विकास की पांच अवस्थाओं की चर्चा की है। यह उनकी मौलिक चर्चा लगती है । इसी प्रकार उन्होंने अन्त में गीता के सत्व, रज और तम उनके आधार पर भी आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है, किन्तु ऐसा ही एक तुलनात्मक अध्ययन डॉ. सागरमल जैन के द्वारा भी उनके शोधप्रबन्ध में भी प्रस्तुत किया गया है । फिर भी उनका यह तुलनात्मक विवेचन गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। अन्त में हम केवल इतना ही कहना चाहेंगे कि प्रस्तुत कृति में उन्होंने षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन नामक इस कृति में गुणस्थान सम्बन्धी जो चर्चाएं की है वे महत्वपूर्ण तो हैं, किन्तु षटखण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त जितना विस्तृत और व्यापक है, उसके साथ पूरा न्याय नहीं करती है, जबकि हमने अपने शोधप्रबन्ध के तृतीय अध्याय में षट्खण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त का जिस रूप में विवेचन उपलब्ध है उस पर ही लगभग २०० पृष्ठों की सामग्री प्रस्तुत की है । पुनः यह शोधप्रबन्ध विवरणात्मक ही अधिक है । शोध के लिए जो आधारभूत ग्रन्थों का आलोडन-विलोडन होना चाहिए, वह अपेक्षित रूप से नहीं हो सका है। फिर भी उपर्युक्त सभी ग्रन्थ हमारे इस अध्याय में सहायभूत रहे हैं और इनके अध्याय से हमें लाभ भी हुआ है।
डॉ. सागरमल जैन कृत गुणस्थान सिद्धान्त एक विश्लेषण K गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में शोधपूर्ण दृष्टि से लिखे गए ग्रन्थों में डॉ. सागरमल जैन द्वारा लिखित गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण २३ सम्भवतः प्रथम ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ ईस्वी सन् १६६६ पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी से प्रकाशित हुआ है । डॉ.
४२३ गुणस्थान सिद्धान्त एक विश्लेषण : लेखकः डॉसागरमल जैन, प्रकाशकः पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-५, प्रथम संस्करण : १६६६
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