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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
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सप्तम अध्याय.......{440} बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता को लेकर प्रस्तुत कृति में जो विवेचन है, वह मुख्य रूप से प्राचीन ग्रन्थों पर ही आधारित है। अतः वे प्रामाणिक तो हैं, परन्तु उनमें किसी प्रकार की नवीन स्थापना परिलक्षित नहीं होती है । आचार्यश्री ने परम्परागत मान्यताओं को ही प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । इस सन्दर्भ में आचार्यों में जो मतभेद रहे हैं, उनकी उन्होंने कोई चर्चा नहीं की है । इससे ऐसा लगता है कि कृति का मुख्य प्रयोजन जनसाधारण को गुणस्थान सिद्धान्त से परिचित कराने का ही रहा है । वैदिक, बौद्ध और योग परम्परा के साथ गुणस्थानों की तुलना निश्चय ही अत्यन्त महत्वपूर्ण है । यद्यपि ऐसी तुलना हमें पंडित सुखलालजी के दर्शन और चिंतन में भी उपलब्ध होती है, फिर भी आचार्य श्रीजयन्तसेनसूरिजी ने उसका अत्यन्त सरल तथा अधिक विस्तार से विवेचन प्रस्तुत किया है, यही उनका वैशिष्ट्य है ।
डॉ. प्रमिला जैन कृत षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन
वर्तमान काल में गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में जो शोधकार्य हुए हैं, उनमें डॉ. प्रमिला जैन द्वारा लिखित षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन २२ भी एक है । प्रस्तुत कृति का उल्लेख आचार्य नानेश की कृति गुणस्थान स्वरूप और विश्लेषण की डॉ. प्रेमसुमन जैन की भूमिका से प्राप्त हुई । उसके पश्चात् हमने प्रस्तुत कृति को प्राप्त करने का प्रयत्न किया और संयोग से डॉ. फूलचन्द जैन के माध्यम से यह कृति हमें उपलब्ध हुई है । प्रस्तुत कृति 'षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन' श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा द्वारा प्रकाशित हुई है । इसके प्रकाशन वर्ष की सूचना तो हमें मुख्य पृष्ठ पर उपलब्ध नहीं है, किन्तु उसके प्राक्कथन में यह लिखा गया है कि उनके इस शोधप्रबन्ध पर जबलपुर विश्वविद्यालय द्वारा १६८५ में पीएच.डी. की उपाधि प्रदान की गई थी । प्रस्तुत कृति के मार्गदर्शन के रूप में उन्होंने डॉ. विमलप्रकाश जैन का उल्लेख किया है । प्रस्तुत कृति यद्यपि एक शोधप्रबन्ध है, किन्तु इस कृति में गुणस्थान सिद्धान्त के विकास आदि को लेकर तथा अन्यत्र गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन कि रूप में उपलब्ध होता है, इसकी कोई चर्चा नहीं है। मात्र षट्खण्डागम को ही केन्द्र में रखकर गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा प्रस्तुत की गई है। प्राक्कथन के रूप में द्वादशांग का परिचय दिया गया है, किन्तु यह परिचय धवला टीका एवं तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर टीकाओं के आधार पर अत्यन्त संक्षिप्त रूप में ही है । श्वेताम्बर परम्पराओं में उपलब्ध द्वादशांग में ग्यारह अंगों के सदंर्भ में इसमें कोई चर्चा नहीं है और न यह प्रयत्न किया गया है कि गुणस्थान सिद्धान्त का किस रूप में उल्लेख है । चौदह अंग बाह्य और चौदह पूर्वों के भी ग्रन्थ के प्रारम्भ में मात्र नामनिर्देश के रूप में हुए हैं। उसके पश्चात् षट्खण्डागम की विषयवस्तु लेखक आदि पर किंचित् विस्तार से चर्चा की गई है ।
यह सत्य है कि गुणस्थान सिद्धान्त का जितना विस्तृत विवेचन षट्खण्डागम में उपलब्ध है, उतना विस्तृत विवेचन अन्यत्र नहीं है । विशेष रूप से ६२ मार्गणाओं और ८ अनुयोगद्वारों को लेकर गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना षट्खण्डागम में ही मिलती है । हमारी दृष्टि में श्वेताम्बर - दिगम्बर पंचसंग्रह और गोम्मटसार को छोड़कर ऐसी विस्तृत विवेचना अन्यत्र उपलब्ध नही है । यद्यपि प्रस्तुत शोधप्रबन्ध षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन को लेकर लिखा गया है, किन्तु इनमें षट्खण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त किस रूप में उपलब्ध है, इसकी चर्चा मात्र २८ पृष्ठों में है । उसमें भी षट्खण्डागम की अपेक्षा गोम्मटसार आदि के ही सन्दर्भ विशेष रूप से दिए गए हैं। ऐसा लगता है कि इस सम्पूर्ण शोधप्रबन्ध में षट्खण्डागम में गुणस्थान का जो विस्तृत विवेचन उपलब्ध है, इसकी चर्चा अत्यल्प है । यह निश्चित ही विचारणीय है । प्रस्तुत कृति के सम्पूर्ण विश्लेषण को देखने पर ऐसा लगता है कि प्रस्तुत कृति में गुणस्थानों की अपेक्षा जैन धर्म-दर्शन की अन्यान्य अवधारणाएं अधिक हैं । प्राक्कथन और उपसंहार को छोड़कर प्रस्तुत कृति आठ अध्यायों में विभक्त है । प्रथम अध्याय में गुणस्थानों की सामान्य अवधारणा का निर्देश हुआ है, किन्तु इनमें विशेष चर्चा मार्गणा, औदारिक आदि पांच भावों, लेश्या तथा बन्ध, सत्व, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदय, उदीरणा, उपशम, निधत्ति और निकाचित ऐसी कर्म की दस अवस्थाओं की ही है । इस चर्चा में भी षट्खण्डागम की अपेक्षा
४२२ षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन, डॉ. प्रमिला, प्रकाशकः भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा ऐशबाग लखनऊ-४
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