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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...
सप्तम अध्याय........{439) अनेक ग्रन्थों का सम्पादन करवाकर प्रकाशित करवाया। हिन्दी, गुजराती, संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी आदि भाषाओं पर आपका समान अधिकार है । विभिन्न भाषाओं पर भी आपको विशेषता प्राप्त है । आपश्री को विक्रम संवत् २०१७ कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को मोहनखेड़ा तीर्थ में उपाचार्य के पद से अलंकृत किया । आपश्री को विक्रम संवत् २०४६ माघ शुक्ल त्रयोदशी बुधवार तदनुसार दिनांक १५/०२/८४ को भाण्डवपुर (राजस्थान) में आचार्य पद से सुशोभित किया गया । वर्तमान में भी आपके द्वारा ग्रन्थ रचना का कार्य अनवरत चल रहा है । वर्तमान में आपश्री एक प्रबुद्ध जैनाचार्य के रूप में माने जाते हैं ।
प्रस्तुत कृति में आपने गुणस्थानों को आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं के रूप में स्थापित करते हुए गुणस्थान शब्द की और उसके स्वरूप की चर्चा की है । उसके पश्चात् गुणस्थानों के विभिन्न नामों की सार्थकता किस अर्थ में है, इस पर विवेचन किया गया है । इसी विवेचन के क्रम में गुणस्थानक्रमारोह के मुख्य आधार के रूप में आपने मोहनीय कर्म के क्षय की प्रक्रिया को बताया है। इसी प्रसंग में ग्रंथिभेद की प्रक्रिया और ग्रंथिभेद के क्रम के रूप में यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की विस्तार से चर्चा की है तथा यह बताया गया है कि ग्रंथिभेद के पश्चात् आत्मा स्वस्वरूप का बोध कर आध्यात्मिक विकास के मार्ग में किस प्रकार उत्तरोत्तर प्रगति करती हुई आत्मपूर्णता को प्राप्त करती है । इसी क्रम में आगे विभिन्न गुणस्थानों में किस प्रकार का ध्यान होता है इसकी चर्चा तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं के आधार पर की है । उसके पश्चात् आपने यह विवेचित किया है कि मिथ्यात्व से लेकर योग पर्यन्त पांच बन्धहेतुओं में कौन-कौन से बन्धहेतु होते हैं । यहाँ विशेष रूप से यह दृष्टव्य है कि जहाँ प्राचीन ग्रन्थों में मुख्यतः चार बन्धहेतुओं की चर्चा की है, वहाँ आचार्यश्री ने पांच बन्धहेतुओं का विवेचन किया है । उसके पश्चात् प्रस्तुत कृति में विभिन्न गुणस्थानों में आत्मा के परिणाम किस प्रकार होते है और षट्लेश्याओं में से कौन-सी लेश्या होती है, इसका विवेचन किया गया है । इसके पश्चात् प्रस्तुत कृति के पृष्ठ क्रमांक २४ से लेकर ४६तक २५ पृष्ठों में चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का विस्तार से विवेचन किया गया है । गुणस्थानों के स्वरूप की चर्चा के प्रसंग में आपने पंचसंग्रह, गोम्मटसार, गुणस्थानक्रमारोह, षट्खण्डागम तथा धवला टीका, तत्त्वार्थसूत्र तथा यथास्थान आगमों को आधार बनाकर इस सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है । गुणस्थानों के स्वरूप को लेकर हिन्दी भाषा में आचार्य नानेश की कृति के समान ही यह कृति अत्यन्त महत्वपूर्ण है । गुणस्थानों के स्वरूप की चर्चा के पश्चात् विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, किन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, किन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है और किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है, इसका विवेचन प्रस्तुत किया गया है । बन्ध हेतु, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि के सम्बन्ध में दो परिशिष्टों में भी आपने अधिक विस्तार से इनकी चर्चा की है।
उसके पश्चात् तुलनात्मक दृष्टि से योग वाशिष्ठ में ज्ञान और अज्ञान की जो सात-सात अवस्थाओं का उल्लेख है, उसको लेकर विस्तार से तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया है । यह विवरण मुख्यतः पंडित सुखलालजी की चतुर्थ कर्मग्रन्थ की भूमिका पर आधारित है । इसके साथ ही पातंजल योगदर्शन में वर्णित चित्त की मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरूद्ध - इन पांच अवस्थाओं को लेकर गुणस्थान से इनकी तुलना प्रस्तुत की है । इस तुलनात्मक विवेचन में बौद्धदर्शन के आजीविक परम्परा में भी जो आध्यात्मिक विकास के विभिन्न चरण बताए गए हैं, उनका उल्लेख करते हुए संक्षिप्त तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है । इस प्रकार यह कृति ७७ पृष्ठों में गुणस्थान सम्बन्धी विवरण प्रस्तुत करती है।
इसके पश्चात् इस कृति में आध्यात्मिक विकास की पूर्णता के रूप में मोक्ष के स्वरूप और मोक्ष मार्ग का विस्तृत विवेचन है । मोक्ष के स्वरूप को लेकर न्याय-वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त, चार्वाक और बौद्धदर्शन में मोक्ष सम्बन्धी अवधारणाएं क्या है ? इसका भी विश्लेषण किया गया है। प्रस्तुत विवेचन हमारे शोध विषय के अर्न्तगत नहीं आता है, इसलिए उस सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन आवश्यक नहीं है। ___अन्त में प्रस्तुत कृति की विशेषताओं की चर्चा करना चाहेंगे । प्रथम तो यह कि हिन्दी भाषा में गुणस्थान सम्बन्धी जो विवेचन उपलब्ध है, उनमें निश्चय ही गुणस्थानों के स्वरूप को लेकर प्रस्तुत कृति का एक महत्वपूर्ण स्थान माना जा सकता है ।
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