________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{294} के आधार पर ही विवेचना करेंगे, क्योंकि हम अपने शोध प्रबन्ध में ग्रन्थों के कालक्रम के आधार पर ही गुणस्थान सिद्धान्त की विकास यात्रा का विवेचन कर रहे हैं। पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार की चतुर्थ गाथा में किस गुणस्थान में कितने बन्धहेतु होते हैं, इसकी सामान्य चर्चा की गई है।
मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग-ये चारों ही बन्धहेतु रहते हैं, जबकि सास्वादन, मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में अविरति, कषाय और योग-ये तीन ही बन्धहेतु होते हैं, क्योंकि इन गुणस्थानों में मिथ्यात्व के उदय का अभाव होता है । देशविरत सम्यग्दृष्टि में भी अविरति का अंश बाकी रहने के कारण तीन ही बन्धहेतु माने जाते हैं, किन्तु प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय-इन पाँच गुणस्थानों में कषाय और योग-ये दो बन्धहेतु होते हैं। उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली इन तीन गुणस्थानों में कषाय का भी अनुदय अथवा क्षय हो जाने से मात्र योग नामक एक ही बन्धहेतु होता है । चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान में कोई भी बन्धहेतु नहीं होता है । विभिन्न गुणस्थानों में उत्तर बन्धहेतु :
पंचसंग्रह के चतुर्थद्वार की पाँचवीं गाथा में मिथ्यात्वादि चार बन्धहेतुओं के उत्तरभेद सत्तावन बताए गए हैं। यह स्पष्ट किया गया है कि कौन-से गुणस्थान में बन्धहेतुओं के कितने उत्तर भेद होते हैं ? मिथ्यात्व के पाँच उत्तरभेद हैं - (9) अभिगृहीत मिथ्यात्व (२) अनभिगृहीत मिथ्यात्व (३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व (४) सांशयिक मिथ्यात्व (५) अनाभोग मिथ्यात्व। अविरति रूप दूसरे बन्धहेतु के बारह प्रकार हैं। मन और पाँच बाह्य इन्द्रियों का असंयम, ये छः प्रकार तथा षड्जीवनिकाय के वध के छः प्रकार इस तरह कुल बारह प्रकार हैं । नौ नोकषाय और सोलह कषाय, सभी मिलाकर कषाय बन्धहेतु के पच्चीस भेद होते हैं। मन के चार, वचन के चार तथा काया के सात ऐसे योग के पन्द्रह भेद होते हैं । कुल मिलाकर सत्तावन उत्तर बन्धहेतु होते है।
मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीवों को आहारक और आहारक मिश्र-ये दो काययोग के बिना पचपन बन्धहेतु होते हैं । यहाँ आहारकद्विक का अभाव है, क्योंकि आहारकद्विक, आहारकलब्धि सम्पन्न चौदह पूर्वधारी सम्यग्दृष्टि षष्ठ गुणस्थानवर्ती मुनिराजों को होते हैं, मिथ्यादृष्टियों को नहीं होते हैं। सास्वादन गुणस्थानवी जीवों को पाँचों प्रकार के मिथ्यात्व का अभाव होने से पचास उत्तरबन्धहेतु होते हैं। मिश्रदृष्टि गुणस्थानवी जीवों को तेंतालीस बन्धहेतु होते हैं। उपर्युक्त पचास में से औदारिक मिश्र, वैक्रियमिश्र, कार्मण काययोग और अनन्तानुबन्धी चतुष्क-इन सात के बिना तेंतालीस बन्धहेतु होते हैं । मिश्रदृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है, अर्थात् इस गुणस्थान में मृत्यु नहीं होती है, अतः विग्रहगति और अपर्याप्तावस्था भी नहीं होती हैं । पुनः, अनन्तानुबन्धी का उदय दूसरे गुणस्थान तक ही होता है, अतः तीसरे गुणस्थान में तेंतालीस ही बन्धहेतु होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों को उपर्युक्त तेंतालीस सहित औदारिक मिश्र, वैक्रियमिश्र तथा कार्मण काययोग सहित छियालीस बन्धहेतु होते हैं। पाँचवें देशविरति गुणस्थानवी जीवों को उनचालीस बन्धहेतु होते हैं। पाँचवाँ गुणस्थान देश से विरतिवाला है. इसीलिए वहाँ त्रसकाय वध की विरति होती है। पाँचवें गुणस्थान में रहे हुए तिर्यंच और मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होते हैं । परन्तु विरति के पच्चखाण यावत् जीवन मात्र के होने से मृत्यु के बाद यह गुणस्थान नहीं रहता है । विग्रहगति में आते ही अविरति प्राप्त हो जाती है, इसीलिए विग्रहगति और अपर्याप्तावस्था से सम्बन्धित कार्मण और औदारिक मिश्र योग नहीं होते हैं। देव-नारकी सम्बन्धी वैक्रियमिश्र काययोग भी इस गुणस्थान में नहीं होता है। लब्धिधारी मनुष्य और तिर्यच आश्रयी वैक्रियमिश्र काययोग सम्भव होता है। अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क देशविरति का घातक होने से इस गुणस्थान में नहीं होता है, अतः अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क त्रसकाय वध और दो मिश्र काययोग ये सात कम करने पर छियालीस में से उनचालीस बन्धहेतु होते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों को उपर्युक्त उनचालीस तथा आहारकद्विक मिलाने से इकतालीस बन्धहेतु होते हैं, किन्तु सर्वविरति होने से ग्यारह अविरति तथा प्रत्याख्यानीय चतुष्क का उदय न होने से इकतालीस में से पन्द्रह कम करने पर छब्बीस बन्धहेतु होते हैं। अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों को वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र-ये दो योग नहीं होते हैं। उसके बिना चौबीस बन्धहेतु होते हैं। आठवें गुणस्थानवी जीवों को वैक्रिय और आहारक काययोग के बिना बाईस बन्धहेतु होते हैं।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org