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गुणस्थान की अवधारणा........
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में पंचम अध्याय .......{293} अर्थात् मन्द कषायवाली पुण्य - प्रकृतियों का प्रश्न है, संक्लिष्ट परिणाम वाला मिथ्यादृष्टि जीव इनको नहीं बांध सकता है, क्योंकि संक्लिष्ट परिणामों में दो-तीन या चार स्थानक रस का ही बन्ध कहा गया है। जैन दर्शन में कषायों की चार स्थितियाँ मानी गई हैं - (१) मंद कषाय (२) तीव्रकषाय (३) तीव्रतर कषाय ( ४ ) तीव्रतम कषाय । अपेक्षा भेद से इन्हें क्रमशः संज्वलन, प्रत्याख्यानीय, अप्रत्याख्यानीय और अनन्तानुबन्धी कहा गया है। कर्मबन्ध की प्रक्रिया में कषाय का सम्बन्ध अनुभाग या रस से होता है । कषायों के आधार पर ही कर्मों के रस और स्थिति का बन्ध होता है, अतः कषायों की इन चार अवस्थाओं के आधार पर ही रस या अनुभाग बन्ध की चार अवस्थाएं मानी गई हैं, जो क्रमशः एक स्थानीय, दो स्थानीय, तीन स्थानीय और चार स्थानीय है। संज्वलन (मन्द) कषाय की स्थिति में एक स्थानीय रस या अनुभाग बन्ध होता है। प्रत्याख्यानीय (तीव्र) कषाय की स्थिति में द्विस्थानीय रस या अनुभाग बन्ध होता है। अप्रत्याख्यानीय (तीव्रतर ) कषाय की स्थिति में तीन स्थानीय रस या अनुभाग बन्ध होता है। अनन्तानुबन्धी (तीव्रतम) कषाय की स्थिति में चार स्थानीय रस या अनुभाग बन्ध होता है। चूंकि मिध्यादृष्टि जीव संक्लिष्ट परिणामवाला अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषाय के उदयवाला होता है, अतः उसके द्वारा सुभग आदि पुण्य प्रकृतियों का बन्ध सम्भव नहीं है । सुभग आदि पुण्य - प्रकृतियाँ केवल एक स्थानीय रस या अनुभाग बन्धवाली होती हैं, जबकि पाप-प्रकृतियाँ, जो संख्या में सत्रह होती है, वे दो-तीन या चार स्थानीय रस में ही बन्धती हैं। इस विषय को और अधिक स्पष्ट करते हुए पंचसंग्रह के तृतीय द्वार की गाथा क्रमांक ५१-५२ और ५३ में कहा गया है कि संज्वलन कषाय, जो जल में खींची गई रेखा के समान होती है, उसमें ही केवलद्विक अर्थात् केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण का बन्ध सम्भव नहीं होता है, क्योंकि केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण घातीकर्म की प्रकृति होने से एक स्थानीय रस बन्ध वाली संज्वलन कषाय की स्थिति में उनका बन्ध नहीं होता है। घातीकर्मों की कर्मप्रकृतियाँ दो-तीन और चार स्थानीय रसवाली होती हैं। चूंकि केवल ज्ञानावरणीय और केवल दर्शनावरणीय कर्म-प्रकृतियाँ एक स्थानीय रसबन्ध वाली नहीं है, अतः अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में इनका बन्ध सम्भव नहीं है । अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय - इन तीन गुणस्थानों में संज्वलन कषाय की ही सत्ता है । संज्वलन कषाय के उदय की स्थिति में मात्र एक स्थानीय रसबन्ध ही हो सकता है, अतः इस गुणस्थान में संक्लिष्ट परिणाम वाली पाप प्रकृतियों का बन्ध सम्भव नहीं होता है। यहाँ यह प्रश्न भी उत्पन्न होता है कि उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणामों के आधार पर ही होता है, अतः शुभ कर्मप्रकृतियों का भी उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणामों पर निर्भर होगा। स्थितिबन्ध योग्य अध्यवसायों से रसबन्ध योग्य अध्यवसाय असंख्यातगुणा अधिक होते हैं, अतः उत्कृष्ट स्थितिवाली पुण्यप्रकृतियों के बन्ध के सम्बन्ध में यह समझना चाहिए कि उनके स्थितिबन्ध योग्य कर्म - स्पर्धकों की अपेक्षा रसबन्ध योग्य कर्मस्पर्धक असंख्यातगुणा अधिक होंगे। अतः उत्कृष्ट स्थितिवाली पुण्य प्रकृतियों का रसबन्ध या अनुभाग बन्ध भी द्वि-स्थानीय ही होता है ।
विभिन्न गुणस्थानों में बन्धहेतु :
पंचसंग्रह के तृतीय द्वार में गुणस्थानों में रस की तीव्रता के अतिरिक्त और कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। पंचसंग्रह के बन्धहेतु नामक चतुर्थ द्वार में पुनः गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है । इस द्वार में बन्ध हेतुओं की सामान्य चर्चा के पश्चात् चतुर्थ गाथा से गुणस्थानों में बन्धहेतु सम्बन्धी विचार उपलब्ध होते हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि पंचसंग्रह में मुख्य रूप से चार ही बन्धहेतुओं का उल्लेख है। ये चार बन्धहेतु हैं - मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । इस विवेचन में प्रमाद को स्वतन्त्र रूप बन्ध का हेतु नहीं माना गया है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग- ये पाँच बन्धहेतु माने गए हैं। असम्भवतः प्रमाद को कषाय के अन्तर्गत मानकर ही चार बन्धहेतुओं की चर्चा हुई है। दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुंदकुंद ने भी अपने समयसार (गाथा - १७१) ग्रन्थ में चार बन्धहेतुओं की चर्चा की है। चार और पाँच बन्धहेतुओं की चर्चा में कौन प्राचीन है ? सामान्यतया यह निर्णय करना पड़ेगा कि गुणस्थान सिद्धान्त की अपेक्षा से विचार करने पर पंचसंग्रह परवर्ती है, क्योंकि इसमें गुणस्थान की विस्तृत चर्चा है । तत्त्वार्थसूत्र इसका पूर्ववर्ती है, क्योंकि इसमें गुणस्थान सिद्धान्त की कोई चर्चा ही नहीं है। इस सम्बन्ध में गम्भीर विचारणा अपेक्षित है, किन्तु हम यहाँ मात्र दोनों परम्पराओं का उल्लेख करके पंचसंग्रह
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