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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{295} अपूर्वकरण गुणस्थानों में जो जीव श्रेणी आरोहण करते हैं, वे श्रेणीगत जीव अति विशुद्धिवाले होने से लब्धि प्रत्ययिक शरीर की रचना नहीं करते हैं, अतः उन्हें दो काययोग नहीं होते हैं, बाईस बन्धहेतु होते हैं। अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थानवी जीवों को सोलह बन्धहेतु होते हैं, क्योंकि हास्यषट्क का उदय आठवें तक ही होता है, अतः बाईस में से छः कम करने पर सोलह बन्धहेतु ही नवें गुणस्थानवी जीवों को होते हैं। उपर्युक्त सोलह में से तीन वेद तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया-ये तीन कषाय-कुल छः के बिना शेष दस बन्धहेतु सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीवों को होते हैं । ज्ञातव्य है कि तीन वेद और संज्वलन त्रिक का उदय नवें गुणस्थान तक ही होता है। इसीलिए दसवें गुणस्थान में ये छः बन्धहेतु सम्भव नहीं है। संज्वलन लोभ के बिना नौ बन्धहेतु ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवी जीवों को होते हैं। चूंकि ग्यारहवें में लोभ का उपशम हैं और बारहवें में लोभ का क्षय होने से उदय नहीं होता है, अतः शेष नौ ही बन्धहेतु होते हैं। तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों को दो मनोयोग, दो वचनयोग, औदारिकद्विक और कार्मण काययोग- ऐसे कुल सात योग होते हैं। उनके बन्धहेतु सात होते हैं। केवली समुद्घात में दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिक मिश्र और तीसरे, चौथे तथा पाँचवें समय में कार्मण काययोग होते हैं, शेष समय में औदारिक काययोग होता है। वचनयोग उपदेश के समय मनोयोग अनुत्तरविमानवासी आदि देवों तथा अन्य क्षेत्र में रहे हुए मुनि के द्वारा मन से प्रश्न पूछते समय मन से ही उत्तर देते हैं। अयोगीकेवली भगवान में, चारों ही मूल बन्ध हेतु रहित होने से, एक भी उत्तरबन्ध हेतु नहीं होता है। यह उत्तरबन्ध हेतु सर्वजीव आश्रयी अथवा कालभेद से एक जीव आश्रयी कहा गया है। पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार की दसवीं गाथा में बताया है कि अनन्तानुबन्धी के उदय बिना मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव को दस योग होते है। सामान्य तथा मिथ्यादृष्टि को तेरह योग होते हैं, तो यहाँ दस योग क्यों बताया है ? अनन्तानुबन्धी के उदय बिना मिथ्यादृष्टि तथा स्वभाव से मृत्यु को प्राप्त नहीं करता है । मृत्यु न होने के कारण विग्रहगति और अपर्याप्तावस्था सम्भव नहीं होती है । विग्रहगति और अपर्याप्तावस्था में कार्मण, औदारिक मिश्र और वैक्रिय मिश्र-ये तीन काययोग होते हैं । उपर्युक्त दोनों अवस्थाओं के अभाव में औदारिक मिश्र, वैक्रिय मिश्र और कार्मण-ये तीन योग नहीं होते हैं, शेष दस योग अनन्तानुबन्धी के उदय बिना मिथ्यादृष्टि जीव को होते हैं। यहाँ यह प्रश्न होता है कि क्या मिथ्यादृष्टि जीव को अनन्तानुबन्धी के उदय का अभाव भी होता है ? तो इसके उत्तर में कहते हैं कि जिसने अनन्तानुबन्धी की उद्वलना की है, वैसा सम्यग्दृष्टि जब मिथ्यात्वमोह के उदय से पतित होकर मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है, तब वहाँ मिथ्यात्व रूप हेतु से अनन्तानुबन्धी बाँधता है; तब एक आवलिका काल तक उसका उदय नहीं होता है, तब मिथ्यादृष्टि को मात्र दस योग ही होते हैं । पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार की ग्यारहवीं गाथा में बताया गया है कि सास्वादन गुणस्थानवर्ती आत्मा को नपुंसक वेद के उदय होने पर वैक्रिय मिश्र काययोग नहीं होता है, क्योंकि यहाँ वैक्रिय मिश्र काययोग को कार्मण काययोग के साथ विवक्षित किया है। नपुंसक वेद का उदय होने पर वैक्रिय काययोग नरक गति में ही होता है, अन्यत्र कहीं पर नहीं होता है। सास्वादन गुणस्थान लेकर कोई भी आत्मा नरकगति में जाती नहीं है, इसीलिए सास्वादन गुणस्थानवर्ती आत्मा को नपुंसक वेद का उदय होने पर वैक्रियमिश्र काययोग नहीं होता है। पंचसंग्रह के चतुर्थद्वार की बारहवीं गाथा में बताया गया है कि अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती आत्मा को स्त्रीवेद का उदय होने पर वैक्रियमिश्र और कार्मण काययोग- ये दो योग नहीं होते हैं, क्योंकि स्त्रीवेदी अविरतसम्यग्दृष्टि कोई भी आत्मा भवान्तर में स्त्री पर्याय में उत्पन्न नहीं होती है। चतुर्थ गुणस्थान सहित जन्म लेने वाली आत्मा पुरुष पर्याय में ही उत्पन्न होती है, स्त्री पर्याय में उत्पन्न नहीं होती है, अतः उसे वैक्रिय मिश्र और कार्मण काययोग नहीं होता है। सप्ततिका चूर्णि में वैक्रियमिश्र काययोगी और कार्मण काययोगी- इन दोनों योगों वाले चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में स्त्रीवेद नहीं होता है; क्योंकि वे स्त्रीवेद में उत्पन्न नहीं होते हैं। दूसरे शब्दों में, इन दोनों योगों से युक्त स्त्रीवेद के उदयवाले जीव को चतुर्थ गुणस्थान नहीं होता है। यह कथन सर्वजीव आश्रयी कहा गया है, अन्यथा कभी स्त्रीवेद में भी उनकी उत्पत्ति होती है। सप्ततिका चूर्णि में ही कहा है कि क्वचित् स्त्रीवेद में भी चतुर्थ गुणस्थान में वैक्रियमिश्र और कार्मण काययोग होते हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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