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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{296} स्त्रीवेद और नपुंसक वेद का उदय होने पर औदारिकमिश्र काययोग नहीं होता है, क्योंकि स्त्रीवेद और नपुंसक वेद के उदयवाले तिर्यंच और मनुष्यों में अविरतसम्यग्दृष्टि आत्मा उत्पन्न नहीं होती है। सर्वजीव आश्रयी यह बात है । क्वचित् किसी में न हो, तो कोई दोष प्राप्त नहीं होता है। स्त्रीवेद के उदयवाले मल्लिस्वामी, ब्राह्मी, सुंदरी आदि चतुर्थ गुणस्थान को लेकर मनुष्यगति में उत्पन्न हुए हैं। उन्हें विग्रहगति में कार्मण और अपर्याप्तावस्था में औदारिकमिश्र काययोग भी होता है। फिर भी सामान्य तथा स्त्रीवेद में वैक्रियमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग नहीं होता है और नपुंसक वेद में औदारिकमिश्र काययोग नहीं होता है। __पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार की तेरहवीं गाथा में बताया गया है कि स्त्रीवेद का उदय होने पर प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव को आहारकद्विक और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव को आहारक काययोग नहीं होता है। स्त्रीवेद के उदय होने पर आहारक काययोग और आहारक मिश्र ये दो योग नहीं होते हैं, क्योंकि स्त्रियों को चौदह पूर्व का ज्ञान होना असम्भव है। चौदह पूर्व के ज्ञान बिना किसी को भी आहारक लब्धि नहीं होती है। स्त्रियों को दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध किया है, इसीलिए स्त्रियों को चौदह पर्व का ज्ञान नहीं होता है। शास्त्र में कहा है कि स्त्रियों का स्वभाव तुच्छ हैं, अभिमान बहुलता वाला है, चंचल है. बिना धैर्य का है. यानी पचा नहीं सकती हैं अथवा बद्धि से मंद हैं. इसीलिए अतिशयवाला अध्ययन उस दष्टिवाद के अध्ययन का स्त्रियों को निषेध किया है। वैक्रिय और आहारक लब्धिवाला प्रमत्तसंयत मनि ही लब्धि का प्रयोग करता है, जिस कारण उसे वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र- ये दोनों योग होते है, परंतु वे लब्धि प्रमत्तसंयत विकुर्वणा करके उस-उस शरीर योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण करने के पश्चात अप्रमत्तसंयत गणस्थान में जाते हैं। उस कारण से अप्रमत्तसंयत गणस्थानवर्ती आत्मा को वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र-ये दो योग नहीं होते हैं। आरंभ काल में और त्यागकाल में मिश्रता होती है। उन दोनों समय में प्रमत्तसंयत गुणस्थान ही होता है।। आहारक लब्धि से युक्त प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती आत्मा विकुर्वणा करके, शरीर योग्य पर्याप्ति पूर्ण करते ही, अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त हो जाती है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती आत्मा विकुर्वणा नहीं करती है, अतः वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्रये दो योग नहीं होते है। आहारक शरीर की विकुर्वणा के समय और त्याग के समय में मिश्रता होती है, किन्तु उस समय में प्रमत्तसंयत गुणस्थान ही होता है; अप्रमत्तसंयत गुणस्थान नहीं होता है। विभिन्न गुणस्थानों में परिषह : पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार की इक्कीसवीं, बाईसवीं तथा तेईसवीं गाथा में बताया गया है कि कौन-से गुणस्थान में कितने परिषह होते हैं। साथ ही यह भी बताया है कि कौन से कर्म के उदय से कौन-कौन से परिषह होते हैं। ___ पंचसंग्रह के चतुर्थद्वार की इक्कीसवीं गाथा में कहा गया है कि क्षुधा परिषह, पिपासा परिषह, उष्णपरिषह, शीतपरिषह, शय्यापरिषह, रोगपरिषह, वधपरिषह, मलपरिषह, तृणस्पर्श परिषह, चर्यापरिषह और दंशपरिषह-ये ग्यारह परिषह सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा में भी सम्भव होते हैं। कर्म के उदय के निमित्त से जब कोई परिषह प्राप्त होता है, तब मुनियों को प्रवचन में कही गई विधि अनुसार समभाव से उन्हें सहन कर उन पर विजय प्राप्त करना चाहिए । ये ग्यारह परिषह सयोगीकेवली गणस्थानवर्ती आत्मा को वेदनीय कर्म का उदय होने पर होते हैं । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा को जो ग्यारह परिषह होते हैं, उनके साथ-साथ ज्ञानावरणीय के उदय से प्रज्ञा एवं अज्ञानपरिषह और अन्तरायकर्म के उदय से अलाभ परिषह-ये चौदह परिषह उपशान्तमोह तथा क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती आत्मा को होते हैं। चूंकि इन दो गुणस्थानवर्ती आत्मा ने सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय किया है, किन्तु ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तरायकर्म शेष हैं, अतः तज्जन्य परिषह उन्हें होते हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती आत्मा को संज्वलन लोभ का कृष्टि रूप अनुभव होता है, फिर भी यह अत्यन्त सूक्ष्म लोभ का उदय स्वीकार्य अर्थात् बन्ध करने में असमर्थ है, इसीलिए उन्हें भी वीतराग-छद्मस्थ के समान ही १४ (चौदह) परिषह होते है। मोहनीय कर्म के उदय से होनेवाला एक भी परिषह उन्हें नहीं होता है। निषद्या, याचना, आक्रोश, अरति, स्त्री, नग्नता, सत्कार और दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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