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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...
पंचम अध्याय........{297}
परिषह-ये आठ परिषह मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं। भय के उदय से निषद्यापरिषह, मान के उदय से याचना परिषह, क्रोध के उदय से आक्रोश परिषह, अरति के उदय से अरति परिषह, पुरुषवेद के उदय से स्त्री परिषह, जुगुप्सा मोहनीय के उदय से नग्नत्व परिषह, लोभ के उदय से सत्कार-पुरस्कार परिषह और दर्शन मोह के उदय से दर्शन परिषह होते है, अतः प्रथम गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक नवें गुणस्थान तक के सभी रागी जीवों को बाईस ही परिषह सम्भव होते हैं। यद्यपि समकाल में एक जीव को बीस परिषह होते हैं, क्योंकि उष्ण और शीत तथा निषधा और चर्या, ये परस्पर विरुद्ध होने से एक साथ नहीं होते हैं। विभिन्न गुणस्थानों में मूल कर्मप्रकृतियों का बन्ध :
पंचसंग्रह के पाँचवें द्वार की दूसरी गाथा में कौन-से गुणस्थानवी जीव कितने कर्म बांधते हैं, इसका विवेचन किया गया है। मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थानवी जीव और सास्वादन गुणस्थानवी जीव प्रतिसमय सात या आठ कर्म का बन्ध करता है। जब आयुष्य कर्म का बन्ध करते हैं, तब अन्तर्मुहूर्त तक आठ कर्मों का बन्ध करते हैं। जब आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं करते हैं, तब शेष सात कर्मों का बन्ध करते हैं। मिश्र गुणस्थानवी जीव आयुष्य कर्म के बिना सात कर्म का बन्ध करते हैं। मिश्र गुणस्थानवी जीव को स्वभाव से ही आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं होता है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती से अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव प्रतिसमय सात या आठ कर्म का बन्ध करते हैं। चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें गुणस्थानवी जीव जब आयु का बन्ध करते हैं, तब अन्तर्मुहूर्त तक आठ कर्मों का बन्ध करते हैं और जब आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं करते हैं, तब सात कर्म का बन्ध करते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवी जीव आयुष्य के बिना सात कर्म प्रतिसमय बांधते हैं। आठवें और नवें इन दोनों गुणस्थानवी जीव अति विशुद्ध परिणामी होने से आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं करते हैं।
सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती जीव मोहनीय और आयु के बिना प्रतिसमय छः कर्म का बन्ध करते हैं। इस गुणस्थानवी जीव भी अति विशुद्ध परिणाम वाले होने से आयु का बन्ध ही नहीं करती हैं और बादरकषाय के उदय रूप बन्ध का कारण नहीं होने से, मोहनीय कर्म का भी बन्ध नहीं करती है । उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली गणस्थानवर्ती आत्मा योग निमित्तक एक मात्र साता वेदनीय का ही बन्ध करता है। मोह निमित्तक, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, नाम, गोत्र, आयुष्य और अन्तराय कर्म का बन्ध नहीं करता है। कषाय का उदय नहीं होने से शेष कोई भी कर्म नहीं बन्धता है। अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव अबन्धक होता
विभिन्न गुणस्थानों में उदय और सत्ता :
पंचसंग्रह के पंचमद्वार की तृतीय गाथा में कौन से गुणस्थान में कितने कर्मों का उदय और कितने कर्मों की सत्ता होती है, इस बात का विवेचन किया गया है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीवों को- इन आठों कर्मों का उदय
और आठों कर्मों की सत्ता होती है, क्योंकि इन सभी गुणस्थानों में मोहनीय कर्म का उदय और सत्ता होती है। उपशान्तमोह गुणस्थानवी जीवों को उदय में सात कर्म होते हैं । मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम हो जाने से उसका उदय नहीं होता है, फिर भी सत्ता में आठों कर्म रहते हैं, मोहनीय कर्म उपशम के कारण सत्ता में तो रहा हुआ है। क्षीणमोह गुणस्थानवी जीवों को सात कर्मों का उदय और सात कर्मों की सत्ता होती है, क्योंकि मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से वह उदय में या सत्ता में नहीं रहता है। पातीकर्मों का नाश हो जाने से सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों को अघाती चार कर्म ही उदय और सत्ता में होते हैं।
पंचसंग्रह के पंचम द्वार की चौथी गाथा में बताया गया है कि संज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय के बिना, शेष तेरह भेद वाले सभी जीव प्रतिसमय आठ कर्म बांधते हैं। स्वयं के आयुष्य के दो भाग जाने के बाद तीसरे भाग की शुरुआत में आयुष्य कर्म का बन्ध हो, तब अन्तर्मुहूर्त तक आठ कर्म बांधते हैं, शेष कर्म में प्रतिसमय सात कर्म बांधते हैं। तेरह भेद वाले सभी जीवों को उदय में और
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