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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{298} सत्ता में आठ कर्म होते हैं। पर्याप्त संज्ञी जीवों में सात, आठ, छः और एक ऐसे गुणस्थान के भेद से बन्ध के चार विकल्प हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से प्रारम्भ कर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक सभी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव आयुष्यकर्म के बन्ध के समय
आठ और शेष काल सात कर्म बांधते हैं। मिश्र, अपूर्वकरण, और अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थानवर्ती- सभी आयुष्यकर्म के बिना सात कर्म बांधते हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीव, आयुष्यकर्म और मोहनीय कर्म के बिना छः कर्म बांधते हैं। उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली- इन तीन गुणस्थानवी जीव सातावेदनीय कर्म का बन्ध करते हैं। अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव बन्ध हेतु का अभाव होने से कर्म का बन्ध नहीं करते हैं।
पंचसंग्रह के पंचम द्वार की गाथा क्रमांक -६६ और १०० में बताया गया है कि अयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय में, जो नामकर्म की नौ प्रकतियाँ उदय में होती हैं, वे इस प्रकार हैं- मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति. त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म. पर्याप्तनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म और तीर्थकरनामकर्म । इन नौ प्रकृतियों का और उच्चगोत्र का अयोगीकेवली गुणस्थान के कालपर्यन्त मात्र उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है । मनुष्यायु, सातावेदनीय और असातावेदनीय - इन तीन प्रकृतियों का अप्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवर्ती आत्माओं को देशोनपूर्वकोटि पर्यन्त मात्र उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है । देशोनपूर्वकोटि काल सयोगीकेवली गुणस्थान आश्रयी समझना, क्योंकि शेष सभी गुणस्थानों का काल अन्तर्मुहूर्त है । सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायु-इन प्रकृतियों की प्रमत्तसंयत गणस्थान के बाद उदीरणा नहीं होती है, क्योंकि इन तीन प्रकृतियों की उदीरणा जीव स्वभाव से संक्लिष्ट अध्यवसाय के कारण होती है। अप्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवर्ती आत्माएँ तो विशुद्ध-अतिविशुद्ध अध्यवसायवाली होती हैं । इसीलिए छठे गुणस्थान से आगे के गुणस्थान में इन तीन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा नहीं होती है।
आत्मा जिस समय में शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होती है, उस समय से प्रारम्भ होकर, तीसरी इन्द्रिय पर्याप्ति जिस समय में पूर्ण हो, उतने कालपर्यन्त पाँच निद्रा का उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है।
शेष तेईस प्रकृतियों में से पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पाँच अन्तराय- इन चौदह प्रकृतियों की क्षीणकषाय गुणस्थान की अन्तिम आवलिका में मात्र उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है, क्योंकि उस समय में सभी प्रकृतियों की अन्तिम एक उदयआवलिका ही शेष है। उदयावलिका के ऊपर दलिक नहीं है तथा उदयावलिका में कोई करण नहीं होता है। इसीप्रकार क्षपकश्रेणी में सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान की अन्तिम आवलिका में संज्वलनलोभ का उदय ही होता है। मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद-इन प्रकृतियों में अन्तरकरण करके प्रथम स्थिति की आवलिका जब शेष रहती है, तब उदय होता है । क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करने में सम्यक्त्वमोहनीय का क्षय करते समय, जब अन्तिम आवलिका शेष रही हो, तब सम्यक्त्वमोहनीय का उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है।
नरकायु, तिर्यंचायु और देवायु - इन तीनों आयुष्य का अपने-अपने भव की अन्तिम आवलिका में उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है, क्योंकि उदयावलिका के अन्तर्गत सभी कर्म उदीरणा के अयोग्य हैं । विभिन्न गुणस्थानों में मूल कर्मप्रकृतियों का उदय एवं उदीरणा :
पंचसंग्रह के पंचमद्वार की पाँचवीं गाथा में गुणस्थान में मूल कर्मप्रकृतियों की उदीरणा का विवेचन किया गया है। उदयावलिका के बाहर के कर्मदलिकों को वहाँ से खींचकर उदयावलिका के साथ भोगने योग्य बना लेने को उदीरणा कहते हैं ।
मिश्र गुणस्थान को छोड़कर मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के गुणस्थानों में आत्मा को सात या आठ कर्म की उदीरणा होती है। स्वयं के आयुष्य की एक आवलिका शेष रहने पर आयु कर्म की उदीरणा नहीं होती है, तब जीव सात कर्म की उदीरणा करता है, अन्यथा आठ कर्म की उदीरणा करता है।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों का सदा ही आठों कर्मों के उदीरक होते हैं, क्योंकि आयुष्य कर्म की एक आवलिका शेष रहने पर मिश्रगुणस्थान नहीं होता है, क्योंकि जब अन्तर्मुहूर्त आयुष्य शेष रहे, तब मिश्र गुणस्थानवी जीव
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