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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{5} अवस्थाओं को समाहित करते हुए निम्न चौदह मार्गणाएं मानी गई है- (१) गति (२) इन्द्रिय (३) काय (४) योग (५) वेद (६) कषाय (७) ज्ञान (८) संयम (६) दर्शन (१०) लेश्या (११) भव्य (१२) सम्यक्त्व (१३) संज्ञी और (१४) आहार। इसी क्रम में आगे गुणस्थानों के रूप में कर्मों के बन्ध, उदय, सत्ता तथा बन्धविच्छेद, उदयविच्छेद और सत्ताविच्छेद को लेकर निम्न चौदह गुणस्थानों की अवधारणा विकसित हुई-(१) मिथ्यादृष्टि (२) सास्वादन (३) मिश्र (४) अविरतसम्यग्दृष्टि (५) देशविरति (६) प्रमत्तसंयत (७) अप्रमत्तसंयत (८) अपूर्वकरण (E) अनिवृत्तिकरण (१०) सूक्ष्मसम्पराय (११) उपशान्तमोह (१२) क्षीणमोह (१३) सयोगी केवली और (१४) अयोगी केवली।५ मात्र इतना ही नहीं, उसके पश्चात् इन चौदह गुणस्थानों का चौदह जीवस्थानों और चौदह मार्गणास्थानों के साथ किस प्रकार का पारस्परिक सम्बन्ध रहा हुआ है, इसकी विस्तार से चर्चा हुई है। इसी क्रम में आध्यात्मिक विशुद्धि या कर्मनिर्जरा के आधार पर दस गुणश्रेणियों की चर्चा भी आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में उल्लेखित है। इसके आधार पर विद्वानों ने यह माना कि गुणस्थान की अवधारणा का विकास ऐतिहासिक कालक्रम में हुआ है। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन लिखते है कि गुणस्थान की अवधारणा के ऐतिहासिक विकास क्रम को समझने की दृष्टि से यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि न केवल प्राचीनस्तर के श्वेताम्बर आगमों में अपितु दिगम्बर आगम रूप में मान्य कषायपाहुडसुत्त में, तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थान की अवधारणा का कहीं भी सुव्यवस्थित निर्देश उपलब्ध नहीं होता है। यद्यपि इन तीनों ग्रन्थों में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्दों जैसे दर्शनमोह उपशमक, दर्शनमोहक्षपक चारित्र मोह उपशमक, चारित्र मोह क्षपक, उपशान्तमोह, क्षीणमोह आदि के प्रयोग उपलब्ध हैं। मात्र यही नहीं, ये तीनों ही ग्रन्थ कर्मविशुद्धि के आधार पर आध्यात्मिक विकास की स्थितियों का चित्रण भी करते हैं। इससे ऐसा लगता है कि इन ग्रन्थों के रचनाकाल तक जैन परम्परा में गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हो पाया था। ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात भी महत्वपूर्ण है कि समवायांग और षट्खण्डागम में चौदह गुणस्थानों के नाम का स्पष्ट निर्देश होकर भी उन्हें गुणस्थान नाम से अभिहित नहीं किया गया है। जहाँ समवायांगसूत्र उन्हें जीवस्थान कहता है, वहीं षट्खण्डागम में उन्हें जीवसमास कहा गया है। इससे यह प्रतिफलित होता है कि जैन परम्परा में लगभग चौथी शताब्दी तक गुणस्थान की अवधारणा अनुपस्थित थी। चौथी शताब्दी के अन्त से लेकर पाँचवीं शताब्दी के बीच यह सिद्धान्त अस्तित्व में आया, किन्तु इसे गुणस्थान न कहकर जीवस्थान या जीवसमास कहा गया है।२४ यद्यपि उपलब्ध साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर डॉ. सागरमल जैन के उपर्युक्त कथन में कुछ सत्यार्थ है, फिर भी गुणस्थान सिद्धान्त के विकासक्रम के सम्बन्ध में अन्य कुछ तथ्यों पर गहराई से विचार कर लेना आवश्यक है। हमारी दृष्टि में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज श्वेताम्बर आगम साहित्य में भी उपस्थित है। चाहे सम्पूर्ण श्वेताम्बर आगम साहित्य में गुणस्थान शब्द का प्रयोग न हुआ हो, किन्तु गुण शब्द का प्रयोग तो उपलब्ध होता है। आचारांग में गुण शब्द को संसारदशा का वाचक माना गया है। इससे यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि जीवों की संसारदशा में जो विभिन्न अवस्थाएं हैं, वे ही गुणस्थान, जीवस्थान की सूचक हैं। भगवती जैसे श्वेताम्बर आगम में और कसायपाहुड जैसे प्राचीनस्तर के दिगम्बर आगम तुल्य ग्रन्थ में सास्वादन को छोड़कर गुणस्थानों के रूप में वर्णित शेष तेरह अवस्थाओं के उल्लेख मिल जाते है। भगवतीसूत्र में अनेक त्रिकों और द्विकों का उल्लेख मिलता है, जैसे- मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि; अविरत, विरताविरत और विरत; प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत; बादरसम्पराय और सूक्ष्मसम्पराय; उपशान्तमोह और क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली; इसके अतिरिक्त करण की चर्चा में यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के उल्लेख भी उसमें उपलब्ध है। इसप्रकार भगवतीसूत्र में चौदह गुणस्थानों में से केवल सास्वादन को छोड़कर सभी नाम उपलब्ध हो जाते हैं। यही स्थिति कसायपाहुडसुत्त की भी है। उसमें भी सास्वादन को छोड़कर शेष अवस्थाओं के नाम उपलब्ध हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन स्वयं ही लिखते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र के समान ही कसायपाहुडसुत्त में न तो गुणस्थान शब्द ही है और न ही गुणस्थान सम्बन्धी चौदह अवस्थाओं का सुव्यवस्थित विवरण है, किन्तु गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्द पाए जाते हैं। कसायपाहुडसुत्त में गुणस्थान से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्द है। मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, विरताविरत (संयमासंयम), विरत (संयत), उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली।२५ इससे यह फलित होता २२ चतुर्थ कर्मग्रन्थ षडशीति गाथा क्रमांक -६, वही. २३ द्वितीय कर्मग्रन्थ, कर्मस्तव गाथा क्रमांक-२, वही. २४ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण - डॉ. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, पृ ३-४. २५ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण - डॉ. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, पृ. ३-४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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