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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ प्रथम अध्याय........{6} है कि चाहे आगमों में गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख न हो, किन्तु सास्वादन के अतिरिक्त गुणस्थानों से सम्बन्धित सभी अवस्थाओं का उल्लेख उनमें उपलब्ध है। परम्परा के अनुसार तो यह भी माना जाता है कि दृष्टिवाद, पूर्व साहित्य और आगमों कभी कुछ अंश लुप्त हो चुका है, इसीलिए यह कहना कि गुणस्थान सिद्धान्त का आगमों में सर्वथा अभाव रहा है, विचारणीय अवश्य है । यद्यपि उपलब्ध साहित्य में किस कालक्रम में गुणस्थानों की अवधारणा किस रूप में उपलब्ध होती है, इस पर विचार किया जा सकता है। यदि इस दृष्टि से हम गुणस्थान की अवधारणा को कालक्रम में रखें, तो हम कह सकते है कि आगमयुग अर्थात् ईसा की पांचवीं शताब्दी के पूर्व तक के जो ग्रन्थ हैं, उनमें हमें गुणस्थान शब्द नहीं मिलता है, किन्तु गुणस्थानों से सम्बन्धित जो चौदह अवस्थाएं हैं, उनमें से सास्वादन को छोड़कर सभी के उल्लेख अवश्य उपलब्ध हो जाते हैं। साथ ही समवायांग में जीवस्थानों के रूप में चौदह गुणस्थानों के नाम भी मिलते हैं। यद्यपि डॉ. सागरमल जैन आदि कुछ विद्वान इसे प्रक्षिप्त अंश मानते हैं। चाहे यह अंश संग्रहणीसूत्र से यहाँ प्रक्षिप्त हुआ हो, किन्तु आज तो यह आगम का अंग है। आगमों के पश्चात् हमें आचारांग निर्युक्ति, ६ तत्त्वार्थसूत्र" और षट्खण्डागम के कृति अनुयोग द्वार की चूलिका में दस गुणश्रेणियों का उल्लेख मिलता है। इ श्रेणियों के अधिकांश नाम वही हैं, जो गुणस्थानों के हैं। इन गुणश्रेणियों को विद्वानों ने भी गुणस्थानों के बीज के रूप में स्वीकार किया है। इसके पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में जीवसमास और दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम ऐसे ग्रन्थ हैं, जो स्पष्ट • रूप से चौदह गुणस्थानों का उल्लेख करते हैं। यद्यपि जीवसमास और षट्खण्डागम जहाँ इन चौदह अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, वहाँ इन्हें प्रथम तो जीवसमास ही कहा गया है, किन्तु अग्रिम विवरण में इनके लिए गुणस्थान शब्द का भी प्रयोग हुआ है। इस प्रकार उपलब्ध जैन साहित्य में गुणस्थान शब्द का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख षट्खण्डागम और जीवसमास में मिलता है। गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत चर्चा भी दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम पुष्पदंत और भूतबलीकृत षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की तत्त्वार्थसूत्र टीका में उपलब्ध होती है। इनके समकालीन भगवती आराधना और मूलाचार में यद्यपि गुणस्थान सिद्धान्त का विस्तृत वर्णन उपलब्ध नहीं है, किन्तु इन दोनों ग्रन्थों में भी गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश तो उपलब्ध होते ही हैं। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम समवायांग के चौदहवें समवाय में जीवस्थान के रूप में तथा जीवसमास में जीवसमास के नाम से इन चौदह अवस्थाओं का उल्लेख उपलब्ध है, २६ किन्तु षट्खण्डागम के समान ही जीवसमास मे भी अग्रिम गाथाओं में उन्हें गुणस्थान के नाम से सम्बोधित किया गया है। इसके पश्चात् गुणस्थान सम्बन्धी विशिष्ट विवरण श्वेताम्बर परम्परा में आवश्यकचूर्णि और सिद्धसेन गणि की तत्वार्थ की टीका में उपलब्ध होता है। इनका काल लगभग सातवीं शताब्दी है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि पूज्यपाद देवनन्दी ने सर्वार्थसिद्धि में तथा पुष्पदंत और भूतबली ने षट्खण्डागम में चौदह मार्गणाओं और आठ अनुयोग द्वारों के आधार पर जितने विस्तार से गुणस्थानों का उल्लेख किया है, वैसा इन दोनों ग्रन्थों में नहीं है । गुणस्थानों के जीवस्थानों और मार्गणास्थानों से पारस्परिक सहसम्बन्ध को लेकर जो विस्तृत चर्चा हमें षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि टीका में मिलती है, उतनी विस्तृत चर्चा हमें आवश्यकचूर्णि तथा सिद्धसेन गणि की टीका में मिलती है। श्वेताम्बर परम्परा में मार्गणास्थानों और जीवस्थानों गुणस्थानों के अवतरण का प्रथम प्रयास हमें श्वेताम्बर प्राकृत पंचसंग्रह में ही उपलब्ध होता है । श्वेताम्बर परम्परा में पंचसंग्रह एक ऐसा ग्रन्थ है, जो गुणस्थान सिद्धान्त की गम्भीर विस्तृत चर्चा प्रस्तुत करता है। वैसे दिगम्बर परम्परा में भी जो दिगम्बर २६ आचारांग निर्युक्ति (चतुर्थ अध्ययन के प्रथम उद्देशक की नियुक्ति. गाथा क्रमांक २२२-२२३ (निर्युक्ति संग्रह - हर्ष पुष्पामृत ग्रन्थमाला पृ. ४४१ ) २७ तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६ सूत्र ४७, लेखक- उमास्वाति महाराज प्रकाशन-यशोविजय जैन संस्कृत पाठशाला, जैन श्रेयस्कर मंडल महेसाणा २८ षट्खण्डागम, चतुर्थ वेदना खण्ड, कृति अनुयोग द्वार, पृ. नं. ६२७. लेखक : पुष्पदंत भूतबली, प्रकाशन : श्री आ. शांतिसागर दि. जैन जिनवाणी संस्था - फलटण, संपादक पं. सुमतिभाई राहा. २६ (अ) कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदस जीवट्ठाण पण्णत्ता, तं जहा-मिच्छादिट्ठि, सासायणसम्मादिट्ठि, सम्मामिच्छादिट्ठि, अविरयसम्मादिट्टि, विरयसविरए, पमत्तसंजए, अप्पमत्तसंजए, निअट्टिबायरे, अनि अट्टिबायरे, सुहुमसंपराए, उवसामए वा खवए वा, उवसंतमोहे, खीणमोहे, सजोगी केवली, अयोगी केवली। समवायांग (सम्पादक- मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति ब्यावर ) १४ / १५ (ब) मिच्छा 9 SS सायणा २ मिस्सा ३ अविरयसम्मा ४ य देसविरयाऽय । विरयापमत्त ६ इयरे ७ अपुव्व ८ अणियट्टि ६ सुहुमा १० य ॥ ८ ॥ उवसंत ११ खीणमोहा १२ सजोगि केवलिजिणो १३ अजोगी १४ य चोद्दस जीवसमासा कमेण एएऽणुगंतव्वा ||६|| - जीवसमास (पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी) गाथा - ८,६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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