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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{198} छः अवस्थाएँ गुणस्थानों में भी यथावत् रूप से प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त अनन्तवियोजक और दर्शनमोह क्षपक - ये दो अवस्थाएं किसी रूप में प्रमत्तसंयत गुणस्थान के समकक्ष मानी जा सकती हैं, क्योंकि सातवें गुणस्थान में सम्यक्त्वमोह पूरी तरह से उपशान्त या क्षय हो जाता है । यद्यपि वर्तमान में चौथे गुणस्थान में भी क्षायिक सम्यक्त्व मानने की परम्परा है, किन्तु सम्यक्त्वमोह पूर्णतः तो सातवें गुणस्थान में ही उपशमित या क्षीण होता है । सातवें गुणस्थान तक उसका उदय या सत्ता बनी रहती है । उस अपेक्षा से इन दोनों अवस्थाओं को किसी सीमा तक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के रूप में माना जा सकता है । इसके आगे के कर्म में उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक और क्षीणमोह का क्रम है । गुणस्थान सिद्धान्त में चारित्रमोह की अपेक्षा से उपशान्तमोह और क्षीणमोह का उल्लेख मिलता है, लेकिन उपशमक और क्षपक के स्पष्ट उल्लेख नहीं है । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण बादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय इन तीनों गुणस्थानों को किसी सीमा तक चारित्रमोह उपशमक अथवा क्षपक के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, किन्तु इसमें स्पष्ट रूप से समानता परिलक्षित नहीं होती। डॉ. सागरमल जैन ने माना है कि प्राचीन परम्परा में मिथ्यात्वमोह और चारित्रमोह दोनों में ही पहले उपशमक और उपशान्त तथा बाद में क्षपक और क्षीण अवस्थाओं की क्रमिक चर्चा होती थी। इसी क्रम से यह चर्चा यहाँ भी हुई है। इन आंशिक साम्य को छोड़कर गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी बाकी चर्चा मूल ग्रन्थ में और उसके स्वोपज्ञ भाष्य में प्रायः उपलब्ध नहीं है, किन्तु यह ध्यान देने योग्य है कि तत्त्वार्थभाष्य को छोड़कर तत्त्वार्थसूत्र की प्रायः सभी श्वेताम्बर और दिगम्बर टीकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। त्रतत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थ सिद्धि टीका में गुणस्थान दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र की सवार्थसिद्धि नामक टीका में एवं श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की सिद्धसेनगणि की टीका में गुणस्थान सिद्धान्त का विस्तृत उल्लेख हुआ है । यद्यपि तत्त्वार्थ की टीकाओं में सर्वप्रथम उमास्वाति के स्वोपज्ञभाष्य का स्थान है, किन्तु उसमें गुणस्थान सिद्धान्त का कोई विवेचन उपलब्ध नहीं होता है । तत्त्वार्थसूत्र की उपलब्ध टीकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त का सर्वप्रथम उल्लेख पूज्यपाद देवनंदी की सवार्थसिद्धि नामक टीका में उपलब्ध होता है । यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि तत्त्वार्थसूत्र समग्र जैन परम्परा का प्रतिनिधि ग्रन्थ है और दिगम्बर परम्परा में वर्तमान में उपलब्ध जो तत्त्वार्थसूत्र की टीकाएं हैं, उनमें पूज्यपाद देवनन्दी की सवार्थसिद्धि टीका प्राचीनतम है। यह भी एक निर्विवाद तथ्य है कि सवार्थसिद्धि टीका के कर्ता पूज्यपाद देवनन्दी दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित है । उनके नाम से यह भी स्पष्ट है कि उन्होनें मुनि दीक्षा ग्रहण की थी और यह भी सम्भव है कि उनका सम्बन्ध नन्दीसंघ से रहा हो । जहाँ तक पूज्यपाद देवनन्दी के काल का प्रश्न है, उनके काल के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। यद्यपि उनके व्यक्तित्व और उनकी ज्ञानगरिमा को सभी लोग एक स्वर में स्वीकार करते हैं । परवर्ती जैनाचार्यों ने उनके पर्याप्त गुणगान किए है, यह बात उनकी महत्ता को स्पष्ट कर देती है । पूज्यपाद देवनन्दी ने सवार्थसिद्धि के अतिरिक्त समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, दशभक्ति और जैनेन्द्र व्याकरण की रचना की थी। इससे उनकी बहुश्रुत प्रतिभा का बोध हो जाता है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि विक्रम संवत् ५२६ में उनके शिष्य वज्रनन्दी ने द्राविड़ संघ की स्थापना की थी। शिष्य एवं गुरु समकालीन भी हो सकते हैं । अतः यह सुनिश्चित तथ्य है कि पूज्यपाद देवनन्दी विक्रम की छठी शताब्दी के लगभग हुए हैं । उनके समय में गुणस्थान सिद्धान्त सुव्यवस्थित रूप में उपस्थित था, इसमें भी कोई सन्देह नहीं है। पूज्यपाद देवनन्दी के सन्दर्भ में इससे अधिक हमें अन्य कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। पूज्यपाद देवनन्दी की सवार्थसिद्धि टीका पर तत्त्वार्थभाष्य का प्रभाव है या नहीं इसे लेकर विद्वानों में मतभेद है। जहाँ एक ओर श्वेताम्बर विद्वान सवार्थसिद्धि टीका को तत्त्वार्थभाष्य से प्रभावित मानते हैं, वहीं दिगम्बर विद्वान यह दिखाने का प्रयत्न करते हैं कि तत्त्वार्थभाष्य Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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