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अध्याय 4
तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं में गुणस्थान की अवधारणा
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तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीजरूप गुणश्रेणी की अवधारणा
तत्त्वार्थसूत्र एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसे जैन धर्म के सभी सम्प्रदायों में समान रूप से मान्यता प्राप्त है । जैन धर्म-दर्शन के सभी पक्षों को इस ग्रन्थ में समाहित करने का प्रयास किया गया है। इस आधार पर यह जैन धर्म दर्शन का प्रति जाता है, किन्तु यह एक आश्चर्य का ही विषय है कि इसमें गुणस्थान सिद्धान्त का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है। मात्र इसके नवें अध्याय में आध्यात्मिक विकास की जिन दस अवस्थाओं (गुणश्रेणियों) का चित्रण है, उनमें चौदह गुणस्थानों में से कुछ के पारिभाषिक नाम उपलब्ध होते हैं, जिनके सम्बन्ध में हम आगे विचार करेगें । तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति माने जाते हैं, यद्यपि दिगम्बर परम्परा में उन्हें उमास्वामी के नाम से प्रस्तुत किया है । यद्यपि कुछ विद्वानों ने उमास्वाति और उमास्वामी को भिन्न-भिन्न व्यक्ति बताने का प्रयास किया है, किन्तु यह एक भ्रान्त अवधारणा ही है। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा में विस्तार से स्पष्टीकरण किया है। यहाँ हम इस चर्चा में न जाकर मात्र यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि तत्त्वार्थसूत्र और उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बर टीकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन किस रूप में उपलब्ध होता है । जैसा कि हमने पूर्व में संकेत दिया कि तत्त्वार्थसूत्र के मूल पाठ में गुणस्थान सिद्धान्त का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता है । तत्त्वार्थसूत्र के वर्तमान में दो पाठ प्रचलित है - (१) भाष्यमान पाठ, जो श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित है और (२) सवार्थसिद्धि मान्य पाठ, जो दिगम्बर परम्परा में प्रचलित है, किन्तु दोनों ही पाठों में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का कहीं कोई उल्लेख नहीं है । मात्र नवें अध्याय में कर्मनिर्जरा की अपेक्षा से आध्यात्मिक विकास की जिन दस अवस्थाओं (गुणश्रेणियों) का चित्रण किया गया है२३७, उनमें पारिभाषिक दृष्टि से कुछ साम्य प्रतीत होता है । वे दस अवस्थाएँ निम्न हैं- (१) सम्यग्दृष्टि (२) श्रावक अर्थात् देशविरत (३) विरत (संयत) (४) अनन्तवियोजक (५) दर्शनमोह क्षपक (६) उपशमक (७) उपशान्त (८) क्षपक (E) क्षीणमोह और (१०) जिन ।
इन दस अवस्थाओं में पारिभाषिक दृष्टि से सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, उपशान्तमोह, क्षीणमोह और जिन (केवली) - ये
... २३७ तत्त्वार्थसूत्र ६/४७
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