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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... चतुर्थ अध्याय .........{199} पर पूज्यपाद देवनन्दी की सवार्थसिद्धि टीका का प्रभाव है। इस सन्दर्भ में यदि हम गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा के आधार पर विचार करें तो दोनों में इस तथ्य को लेकर स्पष्ट अन्तर है । हमारी जानकारी में तत्त्वार्थभाष्य में एक भी स्थान ऐसा नहीं है, जो गुणस्थान की अवधारणा का कोई भी संकेत देता हो, जबकि सवार्थसिद्धि टीका में अनेक स्थानों पर गुणस्थान की अवधारणा का स्पष्ट निर्देश उपलब्ध है । मात्र यहीं नहीं उसमें गुणस्थान, जीवस्थान और मार्गणास्थान के पारस्परिक सम्बन्धों की भी स्पष्ट चर्चा मिलती है । इस तथ्य के आधार पर डॉ. सागरमल जैन आदि कुछ विद्वानों ने सवार्थसिद्धि को तत्त्वार्थभाष्य से परवर्ती माना है । सभी श्वेताम्बर और दिगम्बर विद्वान पूज्यपाद देवनन्दी को छठीं शताब्दी का मानते हैं और यह भी स्वीकार करते हैं कि उनके समक्ष गुणस्थान सिद्धान्त की सुस्पष्ट विवेचना उपलब्ध थी। अग्रिम पृष्ठों में हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि पूज्यपाद देवनन्दी ने अपनी सवार्थसिद्धि टीका में किन-किन प्रसंगों में किस-किस रूप में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा की चर्चा की है । सर्वप्रथम सवार्थसिद्धि में सत्संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों की चर्चा करते हुए गुणस्थान की अवधारणा का उल्लेख हुआ है । यह टीका न केवल चौदह गुणस्थानों का उल्लेख करती है, अपितु चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणास्थानों के सहसम्बन्ध पर विस्तार से प्रकाश डालती है । सत्प्ररूपणा नामक प्रथम अनुयोगद्वार में चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणाओं का सहसम्बन्ध बताया गया है। दूसरे संख्या प्ररूपणाद्वार में चौदह गुणस्थानों की अपेक्षा से जीवों की संख्या का निरूपण किया गया है । इसी प्रकार काल प्ररूपणाद्वार में भी गुणस्थानों की अपेक्षा जीवों के काल का वर्णन उपलब्ध होता है। इसी क्रम में अन्तर प्ररूपणा, भाव प्ररूपणा और अल्प - बहुत्व प्ररूपणा में भी चौदह गुणस्थानों की अपेक्षा से अन्तराल जीवों के अल्प- बहुत्व आदि की चर्चा उपलब्ध होती है । इसीप्रकार तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय की सवार्थसिद्धि टीका में भी किस गुणस्थान में किस निमित्त से कितनी कर्मप्रकृतियों का संवर होता है, इसकी चर्चा की गई है। इसीप्रकार बादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, छद्मस्थवीतराग आदि अवस्थाओं में कितने परिषह होते हैं, इस चर्चा का सम्बन्ध भी गुणस्थान सिद्धान्त से जोड़ा जा सकता है। इसी प्रकार दसवें अध्याय में भी क्षीणकषाय आत्मा के ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय किस निमित्त से होता है, इसकी चर्चा है । इन सब आधारों से यह प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थसूत्र की सवार्थसिद्धिटीका के कर्ता पूज्यपाद देवनन्दी के सामने गुणस्थान सिद्धान्त पर्याप्त विवक्षित रूप में उपलब्ध था । आगे हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि पूज्यपाद देवनन्दी की अपनी इस कृति में चौदह गुणस्थानों की चर्चा किस रूप में की गई है । तत्त्वार्थ सूत्र की सर्वार्थसिद्धिटीका में प्रथम अध्याय के आठ अनुयोगद्वारों से सम्बन्धित सूत्र के विवेचन के प्रसंग में चौदह गुणस्थानों का उल्लेख मिलता है । २३८ प्रथम "सत्” अनुयोगद्वार में जीव द्रव्य की अपेक्षा से गुणस्थानों का विवरण दिया गया है। उसमें निम्न चौदह गुणस्थान उल्लेखित हैं- मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक, अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली । इन चौदह गुणस्थानों के निरूपण के पश्चात् उसमें यह कहा गया है कि इन चौदह गुणस्थानों को समझने के लिए निम्न चौदह मार्गणास्थानों को जानना चाहिए- जैसे गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहारक । सर्वार्थसिद्धि टीका में चौदह गुणस्थानों के नामों की चर्चा में यह विशिष्टता देखने को मिलती है कि उसमें अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय- इन तीनों गुणस्थानों में उपशमक और क्षपक-ऐसे दो-दो भेद किए गए हैं । २३८ तत्त्वार्थसूत्र, सवार्थसिद्धि (भारतीय ज्ञानपीठ देहली) पृ. २१ से ६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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