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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ क्रमिक विकास करते हुए पूर्ण विमुक्ति की सूचक है । जैनदर्शन की दृष्टि से विचार करें तो एक ओर गुणस्थान आत्मा की बन्धन से विमुक्ति की ओर की गई यात्रा की विभिन्न अवस्थाओं के सूचक हैं, तो दूसरी ओर वे आत्मा में कर्मों की उदयादि विभिन्न अवस्थाओं के भी सूचक हैं। गुणस्थान सम्बन्धी ग्रन्थों में किस गुणस्थान में किन कर्मों का उदय रहता है, किनकी सत्ता होती है और किन कर्मों का क्षय या उपशम होता है, इसकी विस्तृत चर्चा है। अतः एक दृष्टि से गुणस्थान आत्मा में कर्मों की सत्ता और कर्मों के उदय के सूचक है, तो दूसरी ओर वे कर्मों के क्षय, क्षयोपशम, बन्धविच्छेद आदि के भी सूचक है। वस्तुतः जैन दर्शन में गुणस्थान की अवधारणा आत्मा के कर्मों के निमित्त से होने वाले बन्धन से उनकी विमुक्ति की ओर होने वाली यात्रा को अभिहित करती है। वस्तुतः गुणस्थान आत्मा की कर्मों के निमित्त से जो विभिन्न अवस्थाएं होती हैं, उसकी व्याख्या करते हैं । गुणस्थानों की उत्पत्ति गोम्मटसार में कहा गया है कि गुणस्थानों की उत्पत्ति मोह और योग के निमित्त से होती है। " दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय कर्मों के निमित्त से या उनके उदय के कारण मन, वचन और काया रूप योगों की जो प्रवृत्ति होती है, वे ही गुणस्थानों की उत्पत्ति के कारण हैं। दूसरे शब्दों में विभिन्न गुणस्थानों का जन्म कर्मों के उदय के निमित्त से मन, वचन और काया की जो योग प्रवृत्ति होती है, उसके द्वारा होता है। वस्तुतः गुणस्थान कर्मों के निमित्त से आत्मा के भावों का जो परिणमन होता है उसके सूचक हैं। गुणस्थानों की संख्या का प्रश्न : प्रथम अध्याय .......{3} कषाय और योग के निमित्त से आत्मा के परिणाम तो अनेक होते हैं, अतः जितने परिणाम होते हैं उतने ही गुणस्थान होने चाहिए। सामान्यतया तो यह प्रश्न समुचित है। गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा में भी पंचसंग्रह आदि ग्रन्थों में एक-एक गुणस्थान में कितने विकल्प सम्भव होते हैं इसकी विस्तार से चर्चा की गई है, किन्तु ऐसा मानने पर गुणस्थानों की भी संख्या अनेक हो जाएगी, जबकि जैनधर्म में और उसकी समग्र परम्पराओं में गुणस्थानों की संख्या तो चौदह ही मानी गई है। इस सम्बन्ध में धवला टीका का स्पष्टीकरण महत्त्वपूर्ण है। जिनेन्द्रवर्णीजी ने जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष में धवला टीका के आधार पर इसका स्पष्टीकरण निम्न रूपों में किया है। वे लिखते हैं कि (आत्मा के ) जितने ही परिणाम होते हैं उतने गुणस्थान क्यों नहीं ? क्योंकि जितने परिणाम हैं, उतने गुणस्थान कहे जाएँ तो समझने और समझाने के व्यवहार में गड़बड़ी हो जाए और व्यवहार चल नहीं सके, उस कारण से द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नियत संख्यावाले चौदह गुणस्थान कहे गए हैं।" फिर भी यह प्रश्न बना ही रहता है कि गुणस्थान चौदह ही क्यों माने जाते हैं? यह संख्या चौदह से कम-अधिक भी सम्भव हो सकती थी । इस सम्बन्ध में विद्वानों की मान्यता यह है कि योगवाशिष्ठ में आध्यात्मिक अविकास की सात और आध्यात्मिक विकास की सात-ऐसी चौदह अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है। पंडित सुखलालजी का कहना है कि इसी चौदह संख्या के आधार पर चौदह गुणस्थानों की संख्या निर्धारित हुई है। " यद्यपि यह निश्चय करना कठिन है कि योगवाशिष्ठ के आधार पर जैनों ने चौदह गुणस्थानों का निर्धारण किया है या जैनों के चौदह गुणस्थानों के आधार पर योगवाशिष्ठ में चौदह आध्यात्मिक पतन और विकास की अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है । किसने किससे ग्रहण किया है, इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है, क्योंकि इसमें ग्रन्थ रचना काल अथवा अवधारणा के विकास के काल का निर्धारण आदि अनेक पक्ष जुड़े होंगे। योगवाशिष्ठ में जो आध्यात्मिक १५ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा क्रमांक-३, लेखक -आ. नेमिचन्द्र, प्रकाशन - भारतीय ज्ञानपीठ, १८ इंस्ट्रीट यूशनल एरिया, लोदी रोड़, नयी दिल्ली - ११०००३ १६ षट्खण्डागम की धवला, १/१, १, १७/१८४/८. १७ योगवाशिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग, ११७/२-२४ उद्धृत दर्शन और चिन्तन भाग-२, पृ. २८२-२८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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