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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
प्रथम अध्याय........{2} गया है कि मोहनीय कर्म अर्थात् दर्शनमोह और चारित्रमोह के उदय से मन, वचन और काया की जो योगरूप प्रवृत्ति होती है, उसी से गुणस्थानों की उत्पत्ति होती है। प्राचीन आचार्यों ने ओघ, समास आदि को भी गुणस्थान की संज्ञा से निर्दिष्ट किया है।
षट्खण्डागम और जीवसमास में गुणस्थान के लिए जीवसमास शब्द का भी प्रयोग हुआ है। षट्खण्डागम में गुणस्थानों को जीवसमास क्यों कहा गया है, इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जीव इनमें 'समस्यन्ते' अर्थात् संक्षेप रूप किए जाते हैं अथवा जीव इनमें 'सम्यक् आसते' अच्छी रीति से रहते हैं, इसीलिए गुणस्थानों को जीवसमास कहते हैं।
समवायांग में गुणस्थानों के लिए जीवस्थान शब्द का प्रयोग हुआ है। वैसे गुणस्थानों के लिए 'गुणस्थान' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम में ही मिलता है। सर्वप्रथम श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थानों का विवेचन करने वाले 'जीवसमास' में गुणस्थान शब्द का प्रयोग न होकर जीवसमास या जीवस्थान शब्द का प्रयोग ही मिलता है। मात्र प्रारम्भ की गाथा में 'जिन' को चौदह गुण का ज्ञाता कहा गया है, किन्तु प्रतिज्ञा तो जीवस्थानों के विवेचन की ही की गई है। संस्कृत भाषा में 'गुण' शब्द का एक अर्थ रज्जु (रस्सी) है।" इस आधार पर जीव को संसार में बांधकर रखनेवाला तत्व गुण है।
प्राचीन जैन आगमों में गुण शब्द का प्रयोग बन्धन में डालने वाले तत्व के रूप में हुआ है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि 'जे गुणे से आवटे, जे आवटे से गुणे',२ अर्थात् जो गुण है वही आवर्त (संसार) है, जो आवर्त (संसार) है वही गुण है। यहाँ पर गुण शब्द संसार परिभ्रमण का वाचक माना गया है। टीकाकारों ने यहाँ गुण शब्द का अर्थ इन्द्रियों के विषय में किया है। उनके अनुसार इन्द्रियों के विषय में अनुरक्तता ही संसार के परिभ्रमण का कारण है, किन्तु यदि गुण शब्द को सीधे संसार परिभ्रमण के कारण के रूप में ग्रहण करें, तो वह संसार दशा की विभिन्न स्थितियों का सूचक है। परवर्ती काल में संसारदशा की विभिन्न अवस्थाओं को ही जीवस्थान कहा गया है और कालांतर में जीवस्थान को गुणस्थान का पर्यायवाची भी मान लिया गया है। अतः गुणस्थान शब्द का एक अर्थ जीव की संसार में अवस्थिति की विभिन्न अवस्थाएं भी होता है, जो उसके कर्मों के उदय आदि के आधार पर अथवा आध्यात्मिक शुद्धि-अशुद्धि के आधार पर बनती है। इसप्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में गुणस्थान शब्द के पारिभाषिक अर्थ को लेकर भी एक विकास हुआ है। सांख्यदर्शन में जगत् और उसके कारणभूत प्रकृति को त्रिगुणात्मक माना गया है।'३ यही अर्थ हमें आचारांग की उपर्युक्त कथन अर्थात् 'जो गुण है वह संसार है और जो संसार है वह गुण है' में प्रतिध्वनित होता है। सांख्यदर्शन में प्रकृति को त्रिगुणात्मक माना गया है और उसके सत्व, रजस् और तमस् गुणों के आधार पर ही पुरुष के बन्धन की व्याख्या की गई है। सांख्यदर्शन में वस्तुतः इन त्रिगुणों की विविध अवस्थाएं ही बन्धन की विविध स्थितियों की सूचक है। आचारांग का यह कथन कि 'जे गुणे से मूलठाणे, जे मूल ठाणे से गुणे'१४ अर्थात् जो बन्धन के मूल स्थान है, वे गुण (इन्द्रियों के विषय) है और जो गुण हैं, वही बन्धन के मूल कारण हैं' - इसी तथ्य को सूचित करता है। इस प्रकार प्रारम्भ में गुण शब्द बन्धन का सूचक रहा है। कालान्तर में वह सद्गुण या आत्म विशुद्धि का सूचक बना है। गुणस्थान की अवधारणा एक ओर बन्धन की सघन अवस्था से उनकी अल्पतम अवस्था की सूचक है, तो दूसरी और वह बन्धन से अल्पतम विमुक्ति से
८ (क) गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा क्रमांक-८
(ख) मूलाचार - गाथा क्रमांक -२६. ६ (क) षट्खण्डागम, धवलावृत्ति, प्रथम खण्ड प्र. १६०-१६१
(ख) जीवसमास गाथा क्रमांक-६, सम्पादन- डॉ. सागरमल जैन, प्रकाशन - पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-५ १० षट्खण्डागम - धवलावृत्ति प्रथम खण्ड पृ. लेखक-पुष्पदन्त भूतबली, प्रकाशन- आ. शांतिसागर दि. जैन जिनवाणी संस्था, श्री श्रुत भण्डार ग्रन्थ प्रकाशन
समिति, फलटण। ११ जालिकस्तु वागुरिको, वागुरा मृगजालिका ।
शुम्ब वटारको रज्जुः शुल्वं तन्त्री वटी गुणः ।। - अभिधान चिंतामणी, मर्त्यकाण्ड, श्लोक नं.५६२, प्रकाशक-चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-१। १२ आचारांगसूत्र, प्रथम अध्ययन, पंचम उद्देशक, वाचना प्रमुख - आ. तुलसी, प्रकाशन जैन विश्वभारती संस्था, लाडनूं (राज.)
आयारो- १/१/५/६३ १३ (अ) सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः सांख्यसूत्र १/१६१,
(ब) प्रकृतिरेव त्रिगुणयुक्ता - सुवर्णसप्ततिशास्६१ १४ आचारांग सूत्र आयारो -२/१/१, प्रकाशन - जैन विश्वभारती संस्था, लाडनूं (राज.)
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