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| अध्याय 3 |
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शौरसेनी आगम साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा
कषायप्राभृत में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज
(अ) कषायप्राभृत का सामान्य परिचय :
किसी भी ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा किस रूप में उपलब्ध होती है, इसका अध्ययन करने के लिए मुख्यरूप से उसमें गुणस्थान शब्द का प्रयोग, गुणस्थानों के नामों के उल्लेख, विविध गुणस्थानों में विभिन्न कर्मों के बन्ध, उदय, उदीरणाकरण, सत्ता आदि की स्थिति तथा गुणस्थानों का जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि से सहसम्बन्ध का अध्ययन करना आवश्यक होता है । इस दृष्टि से विचार करने पर यह पाते हैं कि कसायपाहुडसुत्त में चाहे गुणस्थान शब्द का स्पष्ट प्रयोग न हुआ हो फिर भी उसमें गुणस्थानों की कुछ अवस्थाओं का चित्रण तो अवश्य ही उपस्थित है ।
प्रस्तुत अध्ययन में हम कसायपाहुडसुत्त में गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित पूर्वोक्त मान्यताओं की समीक्षा करने का प्रयत्न करेंगें। ___कसायपाहुडसुत्त शौरसेनी आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ हैं, यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में पंचसंग्रह के अन्तर्गत कसायपाहुड का निर्देश है और उसकी गाथाएँ भी उपलब्ध है । तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि दोनों भिन्न-भिन्न ग्रन्थ हैं। प्रस्तुत कसायपाहुड ग्रन्थ पूर्व साहित्य के (पेज्जदोस पाहुड) की दसवीं वस्तु से उद्धृत है। कसायपाहुड की प्रथम गाथा में ही इस तथ्य को स्वीकार किया गया है । (पेज्जदोस पाहुड) की विवेच्य वस्तु राग और द्वेष रही है, जिन्हें कर्मबन्ध का मूल कारण माना गया है । शौरसेनी कसायपाहुडसुत्त में २३३ गाथाएँ उपलब्ध है । इसमें भी मूल गाथाएं १८० मानी गई है। शेष गाथाएँ भाष्य गाथाओं और संग्रहणी गाथाओं के रूप में है। इसके अतिरिक्त इसकी क्षपणा अधिकार नामक एक चूलिका भी मिलती है, जिसमें १२ गाथाएँ हैं ।
कसायपाहुड में कहीं भी उसके कर्ता का नाम उल्लेख नहीं है । कसायपाहुडसुत्त के कर्ता के रूप में गुणधर का और चूर्णिकार के रूप में यतिवृषभ का उल्लेख कसायपाहुडसुत्त की जयधवला टीका में मिलता है, किन्तु जयघवलाकार ने भी आचार्य गुणधर कौन थे और किस परम्परा से सम्बन्धित थे, इसका उल्लेख नहीं किया है। जयधवला केवल इतना ही स्पष्ट करती है कि आचार्य परम्परा से आती हुई ये सूत्र गाथाएं आर्य मंक्षु और नागहस्ती को प्राप्त हुई। उनके पादमूल में बैठकर आचार्य गुणधर
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