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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.......
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तृतीय अध्याय ........ (74} के मुखकमल से निकली हुई इन १८० गाथाओं का श्रवण कर यतिवृषभ भट्टारक ने चूर्णिसूत्रों की रचना की । १५४ इस कथन से केवल इतना ही निश्चित होता है कि आचार्य गुणधर आर्य मंक्षु और नागहस्ती की परम्परा में हुए थे । आर्य मंक्षु और नागहस्ती के उल्लेख नंदीसूत्र की स्थविरावली में मिलते हैं । यतिवृषभ को ये गाथाएं आर्य मंक्षु और नागहस्ती के द्वारा प्राप्त हुई तथा आर्य मंक्षु और नागहस्ती ने इन्हें आचार्य परम्परा से प्राप्त की, अतः ये गाथाएं इन दोनों के पूर्व की ही हैं । श्वेताम्बर पट्टावलियों में गुणधर नाम के कुछ आचार्यों के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु ये सब आर्य मंक्षु और नागहस्ती से पर्याप्त परवर्ती हैं, अतः उन्हें कसायपाहुडसुत्त का कर्ता नहीं माना जा सकता है। इसीलिए कसायपाहुडसुत्त के कर्ता गुणधर कौन थे और किस परम्परा के थे, यह निर्णय करना कठिन है। डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय में उन्हें उत्तर भारत के अविभक्त निर्ग्रन्थ संघ का माना है तथा उनका काल आर्य मंक्षु और नागहस्ती से पूर्व ही माना है । १५५ नंदीसूत्र और कल्पसूत्र की स्थविरावलि के अनुसार आर्य मंक्षु और नागहस्ती का काल ईसा की दूसरी शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना गया है। यदि आचार्य गुणधर इनसे पूर्ववर्ती है, तो उनका काल ईसा की प्रथम शताब्दी के आसपास मानना होगा। कसायपाहुडसुत्त में गुणस्थान की अवधारणा का प्रायः अभाव तथा तत्त्वार्थसूत्र के समान गुणश्रेणियों की चर्चा यह स्पष्ट करती है कि कसायपाहुडसुत्त का काल ईसा की प्रथम शताब्दी से ईसा की तीसरी शताब्दी के मध्य कहीं होगा । कसायपाहडसुत्त के चूर्णिकार यतिवृषभ माने जाते हैं । यतिवृषभ तिलोयपण्णत्ति के भी कर्ता हैं । यद्यपि परवर्ती काल में उसमें पर्याप्त रूप से प्रक्षेप हुआ है और यदि उसके समग्र रूप को देखें तो यतिवृषभ ईसा की पांचवी शताब्दी के सिद्ध होते हैं, किन्तु यतिवृषभ के चूर्णिसूत्रों में भी गुणस्थान सम्बन्धी स्पष्ट उल्लेख का अभाव है । इससे ऐसा लगता है कि चूर्णिसूत्र षट्खण्डागम की अपेक्षा प्राचीन रहे होंगे, किन्तु यह भी संभव है कि मूल ग्रन्थ में गुणस्थान की अवधारणा के उल्लेख का अभाव होने के कारण चूर्णिकर्ता ने भी उसका कोई उल्लेख नहीं किया हो । यतिवृषभ ने आर्य मंक्षु और आर्य नागहस्ती के सान्निध्य में बैठकर कसायपाहुडसुत्त का अध्ययन किया और उस पर चूर्णिसूत्र लिखे, ऐसा उल्लेख जयधवला में किया गया है । इसके सम्बन्ध में यह कहना सही है कि यतिवृषभ आर्य मंक्षु और नागहस्ती के समकालीन है, क्योंकि उन दोनों का काल तो निश्चित ही ईसा की द्वितीय शताब्दी के आसपास ही है, किन्तु यतिवृषभ को यदि तिलोयपण्णत्ति का कर्ता माना जाता है, तो उन्हें आर्य मंक्षु और नागहस्ती का समकालीन तो नहीं कहा जा सकता है । यह भी हो सकता है उन्हें कसायपाहुडसुत्त; आर्य मंक्षु और नागहस्ती की परम्परा से प्राप्त हुआ हो ।
ग्रन्थ के रचनाकाल के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है । सामान्यतया इसे ईसा की प्रथम शताब्दी से लेकर तीसरी शताब्दी के मध्य रचित माना जा सकता है । यदि गुणस्थान सम्बन्धी चिन्तन को आधार बनाकर देखें, तो इसकी स्थिति षट्खण्डागम के पूर्व और तत्वार्थसूत्र से परवर्ती सिद्ध होती है। डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ " गुणस्थान सिद्धान्त एक विश्लेषण ” में यह माना है कि कसायपाहुडसुत्त, तत्वार्थसूत्र और तत्वार्थभाष्य से किंचित् परवर्ती और षट्खण्डागम आदि गुणस्थान सिद्धांत की विस्तृत चर्चा करने वाले ग्रन्थों से पूर्ववर्ती सिद्ध होता है । १५६ उनका मानना यह है कि आचारांग निर्युक्ति और तत्वार्थसूत्र तथा उसके स्वोपज्ञभाष्य में हमें आध्यात्मिक विकास की केवल दस अवस्थाओं का चित्रण उपलब्ध होता है। तत्वार्थसूत्र एवं उसके स्वोपज्ञभाष्य में आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाएँ ही मिलती है। कसायपाहुड से इनकी तुलना करने पर हम यह पाते हैं कि कसायपाहुड में मिथ्यात्व और मिश्र अवस्था की चर्चा भी है, जबकि इन ग्रन्थों में इनकी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है । पुनः जहाँ षट्खण्डागम में पूर्व में जीवस्थान के नाम से और बाद में गुणस्थान शब्द से जिन चौदह अवस्थाओं की जैसी चर्चा की गई है, वैसी व्यवस्थित चर्चा कसायपाहुडसुत्त में अनुपलब्ध है । कसायपाहुडसुत्त की मूल गाथा में हमें कहीं भीं
१५४ जयधवला पृ. ८३, उद्धृत जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय डॉ. सागरमल जैन, प्रकाशन : पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्राकृत भारती अकादमी,
जयपुर
१५५ जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय, डॉ. सागरमल जैन पृ. ८३, प्रकाशन : पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर (राज.) १५६ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण, डॉ. सागरमल जैन, पृ. ३, प्रकाशन: पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर
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