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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
तृतीय अध्याय........{75}गुणठाण (गुणस्थान) शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है। यद्यपि कसायपाहुड में सूक्ष्मसंपराय, क्षीणमोह आदि नाम उपलब्ध होते हैं, किन्तु इनके साथ गुणश्रेणी आदि शब्द का प्रयोग उपलब्ध है। इस आधार पर विद्वानों की यह मान्यता है कि आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं से चौदह गुणस्थानों की अवधारणा विकसित हुई हैं । इस आधार पर कसायपाहुड का काल तत्त्वार्थसूत्र तथा आचारांग निर्युक्ति के पश्चात् एवं षट्खण्डागम के मध्य ही रखा जा सकता है । अपने इन्हीं तर्कों के आधार पर डॉ. सागर जैन ने इसे आचरांगनिर्युक्ति, तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य के बाद और षट्खण्डागम के पूर्व स्थान दिया है। उनके अनुसार श्वेताम्बर परम्परा में चौदह गुणस्थानों की सुव्यवस्थित चर्चा जीवसमास (लगभग पांचवीं छठी शताब्दी) तत्त्वार्थ सूत्र की सिद्धसेनगणि की टीका (लगभग सातवीं शताब्दी), और आवश्यकचूर्णि (लगभग सातवीं शताब्दी) में मिलती है । दिगम्बर परम्परा में चौदह गुणस्थानों की चर्चा षट्खण्डागम (लगभग पांचवीं - छठी शताब्दी) और तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्ध टीका (लगभग छठी शताब्दी) में मिलती है । यह तो निश्चित है कि विद्वानों की दृष्टि में कसायपाहुड का रचना काल ईसा के पांचवी शताब्दी से पूर्व और आचारांग निर्युक्ति (लगभग दूसरी शताब्दी), तत्त्वार्थसूत्र (लगभग चौथी शताब्दी) के पश्चात् मध्य में कहीं रखा जाता है । अतः इसका काल तीसरी के बाद और पांचवी के पूर्व ही कहीं निश्चित होता है । यद्यपि दिगम्बर परम्परा के कुछ विद्वानों ने डॉ. सागरमल जैन की इस मान्यता को स्वीकार नहीं किया है और वे कसायपाहुडसुत्त को ईसा की प्रथम शताब्दी के लगभग रखना चाहते है । हमारी दृष्टि में कसायपाहुडसुत्त को ईसा की प्रथम शताब्दी में तभी माना जा सकता है कि जब हम उमास्वाति और उनके तत्त्वार्थसूत्र को ईसा की प्रथम शताब्दी के पूर्व माने । कालक्रम के सम्बन्ध में चाहे निश्चयात्मक रूप से कहना कठिन हो परन्तु इतना सुनिश्चित है कि कसायपाहुड की स्थिति तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम के मध्य ही कहीं मानना होगी ।
कषायपाहुड और गुणस्थान की अवधारणा
यह सुनिश्चित है कि कसायपाहुड की मूल गाथाओं में गुणस्थान, जीवस्थान और जीवसमास - ऐसे नामों का कहीं भी उल्लेख नहीं है। फिर भी उसके अन्दर कुछ ऐसी अवस्थाओं के निर्देश अवश्य उपलब्ध हैं, जो गुणस्थान या तत्त्वार्थ में वर्णित आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं के निकटवर्ती कही जा सकती हैं। जो नाम हमें कसायपाहुडसुत्त की मूलगाथाओं में उपलब्ध हुए, उन्हें हम इस क्रम से रख सकते हैं- मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र), सम्यक्त्व, अविरत, विरताविरत (मिश्र), विरत, बादरराग, बादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तकषाय, क्षीणमोह और केवलदर्शन । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कसायपाहुड के चूर्णिसूत्रों में अपूर्वकरण आदि कुछ अवस्थाओं का भी संकेत मिलता है।
यदि हम गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से इन अवस्थाओं का विचार करते हैं तो हमें अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण तथा अयोगीकेवली जैसी अवस्थाओं का कहीं कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है । कसायपाहुडसुत्त में यद्यपि अयोगीकेवली के सम्बन्ध में मूलगाथाओं में कहीं कोई निर्देश नहीं है, किन्तु उसके चूर्णिसूत्रों के अन्त में अयोगीकेवली अवस्था सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध होते हैं। इसके चूर्णसूत्र, जो यतिवृषभ के माने जाते हैं, लगभग छठी शताब्दी के हैं ।
कसायपाहुडसुत्त की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें दर्शनमोह और चारित्रमोह दोनों के सम्बन्ध में उपशामक, उपशान्त, क्षपक और क्षीण अवस्थाओं का चित्रण उपलब्ध है । इससे ऐसा लगता है कि प्राचीनकाल में मिथ्यात्वमोह और चारित्रमोह दोनों के सन्दर्भ में पहले उपशमक, उपशान्त और फिर क्षपक और क्षीण इन चार अवस्थाओं की चर्चा प्रमुख रूप से होती थी । यही कारण है कि कसायपाहुड में भी उपशामक, उपशान्त, क्षपक और क्षीण - इन चारों अवस्थाओं का चित्रण दर्शनमोह और चारित्रमोह के सम्बन्ध में अलग-अलग रूप में मिलता है । यह भी स्पष्ट है कि कसायपाहुड में किस-किस अवस्था में किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध, उदय, उदीरणा, संक्रमण आदि होता है, इसकी भी चर्चा की गई है । फिर भी यहाँ गुणस्थान सिद्धान्त जैसी कोई अवधारणा हमें स्पष्ट रूप से प्राप्त नहीं होती है ।
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