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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{76} __ कसायपाहुडसुत्त में गुणस्थान सिद्धान्त की स्पष्ट अवधारणा के अभाव को लेकर दो प्रकार के दृष्टिकोण हो सकते हैं। कुछ विद्वान तत्त्वार्थसत्र, कसायपाहुड एवं श्वेताम्बर आगम साहित्य में गुणस्थान का स्पष्ट निर्देश न पाकर यह मान्यता रखते हैं कि गुणस्थान सिद्धान्त का विकास एक परवर्ती काल की घटना है, किन्तु इस सम्बन्ध में यह भी कहा जा सकता है कि चाहे कसायपाहुड में गुणस्थानों की पूर्णतः विकसित अवधारणा का अभाव हो, फिर भी उसमें गुणस्थान सम्बन्धी विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण तो है ही। ज्ञातव्य है कि कसायपाहुडसुत्त का सम्बन्ध मात्र कषायों के बन्ध, उदय, उदीरणा और संक्रमण तथा उपशमन और क्षय से है, इसीलिए इसमें गुणस्थान की सम्पूर्ण अवधारणा का अभाव देखकर यह निर्णय करना उचित नहीं है कि उस काल में गुणस्थान था ही नहीं। चूंकि प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय केवल कषायों के अर्थात् दर्शनमोह और चारित्रमोह के उपशम और क्षय को बताना है, इसीलिए उसमें गुणस्थान सिद्धान्त की व्यवस्थित अवधारणा का अभाव स्वभाविक ही है, क्योंकि ग्रन्थकार जिस विषय का विवेचन करता है, स्वयं को उसी विषय तक सीमित रखता है। यद्यपि यह स्पष्ट है कि गुणस्थान सिद्धान्त का मुख्य सम्बन्ध तो दर्शनमोह और चारित्रमोह के उपशमन और क्षय की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण करना हैं, इसलिए प्रयोजन की अपेक्षा से हम इतना अवश्य कह सकते है कि गुणस्थान सिद्धान्त एवं कसायपाहुडसुत्त-दोनों का ही सम्बन्ध व्यक्ति की आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं की चर्चा करना है, इसीलिए दोनों में समरूपता होना स्वाभाविक है। मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उपशमन और क्षय की चर्चा दोनों में ही की गई है और उसमें सैद्धांतिक दृष्टि से विशेष मतभेद नहीं देखा जाता है । कसायपाहुड की मूल गाथाओं में अयोगीकेवली गुणस्थान का चित्रण न होना अस्वाभाविक नहीं है । चूंकि प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय मोहनीय कर्म के क्षय तक ही सीमित है, इसीलिए इसके क्षय के पश्चात् सर्वज्ञता की प्राप्ति की चर्चा कर देने मात्र से ही इसका प्रयोजन पूर्ण हो जाता है। आगे हम इस बात की विस्तार से चर्चा करेंगे कि इन विभिन्न अवस्थाओं में कसायपाहुडसुत्त मोहनीय कर्म की किन-किन प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा, उपशम और क्षय की चर्चा करता है । कसायपाहुड षट्खण्डागम से पूर्ववर्ती है और षट्खण्डागम कसायपाहुड से परवर्ती है । इस तथ्य को कसायपाहुडसुत्त की प्रस्तावना में पं. हीरालाल ने स्वयं स्वीकार किया है । वे स्वयं लिखते हैं कि कसायपाहुडसुत्त के कर्ता आचार्य गुणधर, आचार्य धरसेन तथा पुष्पदन्त और भूतबली से पूर्ववर्ती है। (पृ.४-७) ____ कसायपाहुड के चूर्णिसूत्रों में चौदह जीवसमासों का उल्लेख हुआ है, किन्तु वहाँ जीवसमास का तात्पर्य चौदह गुणस्थान न होकर चौदह जीवस्थान ही है । (पृ.५६४) कसायपाहुड के चूर्णिसूत्रों की प्राचीनता का एक आधार यह भी है कि तत्त्वार्थसूत्र (भाष्य मान्य पाठ) के समान इनमें पांच मूल नयों का ही उल्लेख है। (पृ.१७) यहाँ यह ज्ञातव्य है कि षट्खण्डागम में भी मूल पांच नयों का ही उल्लेख है। पांच नयों की अवधारणा अपेक्षाकृत प्राचीन होने से चूर्णिसूत्रों की प्राचीनता सिद्ध होती है। कसायपाहुडसुत्त की विषयवस्तु एवं गुणस्थान सिद्धान्त : जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि कसायपाहुडसुत्त की विषयवस्तु मुख्यतया दर्शनमोह और चारित्रमोह की विभिन्न अवस्थाओं में कर्मप्रकृतियों की स्थिति, अनुभाग और प्रदेश विभक्ति से सम्बन्धित हैं। साथ ही यह उनके बन्ध, संक्रमण आदि की चर्चा करता है। कसायपाहुडसुत्त में वर्णित पन्द्रह अधिकारों के विषय इस प्रकार बताए गए हैं ।'५७ १.प्रेयोद्वेष विभक्ति २. स्थिति विभक्ति ३. अनुभाग विभक्ति ४. बन्ध विभक्ति ५.संक्रमण विभक्ति ६.वेदक विभक्ति या उदीरणा विभक्ति ७. उपयोग विभक्ति ८. चतुःस्थान विभक्ति ६.व्यंजन विभक्ति १५७ कसायपाहुडसुत्त, लेखक : गुणधराचार्य, प्रकाशक : वीर शासन संघ, कलकत्ता, सम्पादक एवं हिन्दी अनुवादक : पं. हीरालाल जैन, गाथा क्रमांक : १३-१४ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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