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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{77} १०. दर्शनमोह उपशमना विभक्ति ११. दर्शनमोह क्षपण विभक्ति १२. संयमासंयम लब्धि १३. चारित्र लब्धि
१४. चारित्रमोह उपशमन विभक्ति १५. चारित्रमोह क्षपण विभक्ति ज्ञातव्य है कि मलगाथाओं. चर्णिसत्रों और जयधवला टीका में इन नामों में कहीं क्रमभेद तो कहीं नामभेद देखा जाता है। चूर्णिकार स्थिति और अनुभाग को अलग-अलग न करके एक ही भाग में रखता है और चारित्रमोह क्षपण विभक्ति के बाद अद्धा परिमाण निर्देश नामक एक अधिकार की चर्चा करता है । इसी प्रकार जयधवलाकार दर्शनमोह उपशमन और दर्शनमोह क्षपण-इन दो विभक्तियों को मिलाकर सम्यक्त्व विभक्ति नाम देता है और एक अधिकार की पूर्ति प्रकृति विभक्ति नाम से करता है । इस सामान्य मतभेद को छोडकर विषयवस्तु से सम्बन्धित अधिकारों में कोई महत्वपूर्ण अन्तर नहीं देखा जाता है ।५८
___ कर्म की जिन विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण कसायपाहुडसुत्त में पाया जाता है, उनमें मुख्य रूप से बन्ध , संक्रमण , अपवर्तन , उपशमन और क्षय की ही चर्चा विशेष रूप से देखी जाती है। स्थिति की चर्चा में हम उनकी चर्चा की सत्ता को भी अन्तर्भावित कर सकते हैं।
जहाँ तक आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं के चित्रण का प्रश्न है, इसके प्रारंभ में तो सम्यग्दृष्टि, देशविरत, संयत (विरत), दर्शनमोह उपशमक, दर्शनमोहक्षपक,चारित्रमोह उपशमक, चारित्रमोह क्षपक- इन सात अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है। अन्यत्र मिथ्यात्व, मिश्र, बादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय तथा केवली-इन पांच अवस्थाओं का भी उल्लेख पाया जाता है । इस प्रकार आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से इसमें बारह अवस्थाओं का चित्रण उपलब्ध है । मूल गाथाओं में कहीं भी सास्वादन अवस्था का उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार से इसमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ऐसे दो विभागों के स्थान पर मात्र संयत का निर्देश मिलता है। अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की चर्चा इस ग्रन्थ की मूल गाथाओं में नहीं मिलती है। इसी प्रकार से इसमें केवली के सयोगी और अयोगी भेद का मूलगाथा में कहीं उल्लेख नहीं मिलता है, यद्यपि उसके चूर्णिसूत्रों में इनका उल्लेख है। यदि हम अनिवृत्तिकरण को बादरसंपराय के अर्थ में गृहीत करें, तो इसमें गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित ग्यारह नाम स्पष्टरूप से उपलब्ध होते हैं। दर्शनमोह के सम्बन्ध में उपशमक और क्षपक-ये दो भेद गुणस्थान सिद्धान्त में नहीं है, किन्तु हमें इस ग्रन्थ में मिलते हैं।
यदि हम कसायपाहुडसुत्त में वर्णित इन अवस्थाओं की तुलना आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित दस अवस्थाओं से करते हैं, तो कसायपाहुडसुत्त में हमें केवल सम्यग्मिथ्यादृष्टि का चित्रण अधिक मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र में आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से मिथ्यात्व का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु कसायपाहुडसुत्त में मिथ्यादृष्टि का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ अनन्तवियोजक का उल्लेख हुआ है, वहीं कसायपाहुडसुत्त में दर्शनमोह उपशामक का उल्लेख है और उसकी चूर्णि में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण का भी स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध होता है।५६ पुनः चूर्णिसूत्रों में चौदहवें अधिकार में ५४४ वें सूत्र में सास्वादन (सासाणं) गुणस्थान का भी उल्लेख हुआ है और उसमें विस्तार से दोनों अवस्थाओं की स्थिति क्या होती है, इसकी भी चर्चा की गई है। इसी प्रकार से चूर्णिसूत्रों में सयोगी जिन और अयोगी जिन (केवली) का स्पष्टरूप से उल्लेख है।६० इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि कसायपाहुडसुत्त के चूर्णिसूत्रों के कर्ता यतिवृषभ, गुणस्थान सिद्धान्त से पूरी तरह परिचित थे। इन उल्लेखों में यह भी सिद्ध होता है कि कसायपाहुडसुत्
न सिद्धान्त के विकास के बाद ही लिखी गई है। इस दृष्टि से चूर्णि और चूर्णिकार यतिवृषभ का समय लगभग छठी शताब्दी से पूर्व का नहीं माना जा सकता है। यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति में भगवान महावीर के निर्वाण के एक हजार वर्ष पश्चात् होने वाले राजा आदि का उल्लेख किया है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि वे भगवान महावीर के निर्वाण के एक हजार वर्ष पश्चात् अर्थात् विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्व में कभी
१५८ कसायपाहुडसुत्त, गुणधराचार्य रचित, सम्पादक : पं. हीरालाल जैन, प्रकाशक : वीर शासन संघ, कलकत्ता १५६ कसायपाहुडसुत्त, चूर्णि अधिकार १४ सूत्र ५४४ १६० कसायपाहुडसुत्त, गाथा २३३ के चूर्णिसूत्र १५७१-१५७२
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