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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{78} हुए हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में यतिवृषभ के मत का उल्लेख किया है। इसी प्रकार पूज्यपाद देवनन्दी ने भी सर्वार्थसिद्धि में उनके इस मत का भी उल्लेख किया है कि सास्वादन गुणस्थानवी जीव एकेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होता।'६' इन दोनों आधारों पर हम यह कह सकते हैं कि यतिवृषभ का काल ईस्वी सन् की पांचवीं शताब्दी के अन्त और विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्व कहीं स्थिर होगा। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्ध टीका भी ईस्वी सन् के पांचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के पश्चात् लगभग छठी शताब्दी में ही लिखी गई है।
इस प्रकार जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है कि आध्यात्मिक विकास की चर्चा के प्रसंग में कसायपाहडसत्त की स्थिति आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र के बाद और षट्खण्डागम, देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका एवं गुणस्थान की चर्चा करने वाले अन्य ग्रन्थ जैसे मूलाचार, भगवती आराधना, कुन्दकुन्द के ग्रन्थ के पूर्व सिद्ध होती है । इस प्रकार आध्यात्मिक विकास की आचारांगनियुक्ति में वर्णित दस अवस्थाओं से चौदह गुणस्थानों के विकास की इस यात्रा में कसायपाहुडसुत्त को एक मध्यवर्ती पड़ाव कहा जा सकता है।
जैसे कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है कि कसायपाहुडसुत्त मूलतः दर्शनमोह और चारित्रमोह की कर्मप्रकृतियों के प्रदेशबन्ध, प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध-इन चारों का उल्लेख करता है। इस ग्रन्थ के पन्द्रह अधिकारों में से प्रथम अधिकार (पेज्जदोस विभक्ति) है। इसमें सर्व प्रथम बताया गया है कि कषाय रागद्वेष के ही रूप हैं। रागद्वेष और कषायों के स्वरूप की चर्चा के पश्चात इनके कितने भेद हैं ? वे किस स्थिति में कितनी देर तक स्थित रहते हैं ? इनका अन्तरकाल क्या हैं? इनसे युक्त जीवों में किस प्रकार के हीनाधिक परिणाम पाए जाते हैं, इसकी चर्चा है। इस अधिकार में मूलतः मोहनीय कर्म के मूल दो और आवान्तर अट्ठाईस भेदों की चर्चा की गई है।
कसायपाहुडसुत्त का दूसरा अधिकार स्थिति विभक्ति है। इसमें मोहनीय कर्म एवं उसके आवान्तर भेदों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन अनेक अनुयोगद्वारों के आधार पर किया गया है। तीसरा विभाग अनुभाग विभक्ति है। कर्मों के फल देने की शक्ति या तीव्रता अनुभाग कही जाती है। इसके अन्तर्गत लता, काष्ठ और पर्वत के उदाहरणों से कर्मों की हीनाधिक रूप से फल देने की शक्ति का विचार किया गया है। इसी अनुभाग विभक्ति के अन्तर्गत प्रदेश विभक्ति की भी चर्चा की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ का ये चौथा अधिकार है। इसमें मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से कर्मों का जो बन्ध होता है, वह कैसे होता है, इसकी अत्यन्त संक्षिप्त चर्चा है। इसके साथ ही इसी गाथा (गाथा. २३) में कर्मसंक्रमण की चर्चा का भी निर्देश है। इसमें गुणहीन और गुणविशिष्ट कितने जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशों का संक्रमण होता है, इसका निर्देश मात्र है।
अगला अधिकार संक्रमण अधिकार है। संक्रमण के भी बन्ध के समान ही चार भेद माने गए हैं। प्रकृति संक्रमण, स्थिति संक्रमण, अनुभाग संक्रमण और प्रदेश संक्रमण । ज्ञातव्य है कि कर्मों का संजातीय आवान्तर प्रकृतियों में रूपान्तरित होना ही संक्रमण है, अतः वह प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग सभी के सम्बन्ध में घटित होता है । यद्यपि यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि प्रकृतिबन्ध में संक्रमण अपनी आवान्तर कर्मप्रकृतियों में ही होता है। कर्मप्रकृति का जितनी स्थिति का बन्ध होता है, उस स्थिति को कम-अधिक करना, स्थिति संक्रमण कहलाता है। इसी प्रकार कर्म की फल देने की शक्ति को कम-अधिक करना, यह अनुभाग संक्रमण कहलाता है। पुनः जिन कर्मप्रकृतियों के जितने प्रदेश हैं उन प्रदेशों का अपनी ही आवान्तर कर्म प्रकृतियों में संक्रान्त हो जाना प्रदेश संक्रमण कहलाता हैं। प्रस्तुत अधिकार में संक्रमण के विभिन्न अनुयोगद्वारों के आधार पर चर्चा की गई है। विशेषरूप से इसमें पांच प्रकार के उपक्रम, चार प्रकार के निक्षेप, पांच प्रकार के नय और आठ प्रकार के निर्गमों के आधार पर संक्रमण की चर्चा की गई है। ____ अग्रिम अधिकारों में छठा वेदक अधिकार है। इसमें कर्म का फल किस प्रकार से अनुभव किया जाता है इसका वर्णन है। इसमें वेदन से सम्बन्धिघत उदय और उदीरणा दोनों की चर्चा हुई है।
१६१ सर्वार्थसिद्धि - पूज्यपाद देवनन्दी, प्रस्तावना पृ. ६, सम्पादनः पं. फूलचन्द्र शास्त्री, प्रकाशनः भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली-११००३२
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