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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{311) क्षय करने के लिए प्रयत्नशील कोई गुणितकांश आत्मा प्रयत्न करे, तो ऐसे क्षपक में सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय में यशःकीर्तिनामकर्म, उच्चगोत्र और सातावेदनीय कर्मों के प्रदेशों की उत्कृष्ट सत्ता होती है, क्योंकि इन कर्मप्रकृतियों में क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ आत्मा गुणसंक्रमण के द्वारा अशुभ प्रकृतियों के दलिकों को भी इनमें संक्रमित कर देती है। इसीलिए सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय में इन कर्मप्रकृतियों के प्रदेशों की सत्ता सम्भव होती है।
पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ चौसठवीं गाथा में कहा गया है कि तमस्तमप्रभा नामक सातवें नरक का नारकी जीव उत्पन्न होने के पश्चात् तत्काल सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर अन्तर्मुहूर्त न्यून तेतीस सागरोपम जैसी दीर्घ अवधि तक सम्यक्त्व का पालन करते हुए उस काल में मनुष्यद्विक और वज्रऋषभनाराच संघयण का बन्ध करे, तो चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान के चरम समय में उस नारकी जीव को मनुष्यद्विक और वज्रऋषभनाराच संघयण के कर्मप्रदेशों की उत्कृष्ट सत्ता होती है।
__पंचसंग्रह के पंचमद्वार की एक सौ पैंसठवीं गाथा में बताया गया है कि मिश्र गुणस्थान का अन्तर्मुहूर्तकाल अधिक दो छासठ यानी एक सौ बत्तीस सागरोपम तक बन्ध से और अन्य प्रकृतियों के संक्रमण से सम्यक्त्व होने पर भी जिनका अवश्य बन्ध होता है, वे पंचेन्द्रियजाति, समचतुरनसंस्थान, पराघातनामकर्म, उच्छ्वासनामकर्म, प्रशस्तविहायोगतिनामकर्म, त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, प्रत्येकनामकर्म, सुस्वरनामकर्म, सुभगनामकर्म और आदेयनामकर्म- इन बारह प्रकृतियों के प्रदेशों के चार बार मोहनीय कर्म का उपशमन करने के पश्चात् मोहनीय के क्षय के लिए प्रयत्नशील आत्मा को अपने-अपने बन्ध के अन्तिम समय में उत्कृष्ट सत्ता होती है।
पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ सत्तरवी गाथा में बताया है कि जो क्षपितकांश आत्मा उपशमश्रेणी किए बिना क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हो, तो उस क्षपितकाश आत्मा में यथाप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय में अर्थात् अपूर्वकरण गुणस्थान में गुणसंक्रमण होने से पूर्व संज्वलन लोभ और यशःकीर्तिनामकर्म के प्रदेशों की जघन्य सत्ता होती है, किन्तु जो मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम करे और गुणसंक्रमण के द्वारा अबध्यमान किन्तु सत्ता में रही हुई अशुभ प्रकृतियों को उक्त प्रकृतियों में संक्रमित कर दे, तो इन प्रकृतियों के दलिक सत्ता में अधिक हो जाने से उसमें इन कर्मप्रकृतियों की जघन्य प्रदेशसत्ता सम्भव नहीं होगी, किन्तु जघन्य प्रदेशों की सत्ता में उपशमश्रेणी का कोई प्रयोजन नहीं है, इसीलिए कहा है कि उपशमश्रेणी पर आरूढ़ हुए बिना क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होने की स्थिति में अप्रमत्त गुणस्थान के चरम समय में इन कर्मप्रकृतियों के प्रदेशों की जघन्य सत्ता होती है, क्योंकि अपूर्वकरण गुणस्थान में गुणसंक्रमण प्रारम्भ हो जाने से उन कर्मप्रदेशों की जघन्य सत्ता सम्भव नहीं होगी।
मिथ्यात्व को प्राप्त आत्मा को आहारक सप्तक के कर्मप्रदेशों की जघन्य सत्ता होती है, अर्थात् कोई अप्रमत्त आत्मा अल्पकाल पर्यन्त आहारकसप्तक का बन्ध कर मिथ्यात्व को प्राप्त हो और वहाँ पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने समय में उसकी उद्वर्तना करे, उसकी सत्ता के चरम समय में स्वरूप की अपेक्षा एक समय की स्थिति शेष रहने पर और सामान्य की अपेक्षा दो समय की स्थिति शेष रहने पर आहारक सप्तक की जघन्य सत्ता होती है। शेष कर्मप्रकृतियों की क्षपितकाश आत्मा में उन प्रकृतियों के क्षय के अन्तिम समय में जघन्यप्रदेश सत्ता होती है।
पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ चहत्तरवीं गाथा में आवलिका के समय समान स्पर्द्धकों का विवरण है। मोहनीयकर्म की मिथ्यात्वमोहनीय और अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, अप्रत्याख्यानीय चतुष्क एवं प्रत्याख्यानीय चतुष्क- ऐसे बारह कषाय, ये सर्वघाती तेरह कर्मप्रकृतियाँ, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, जातिचतुष्क, स्थावरनामकर्म, आतपनामकर्म, उद्योतनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म
और साधारणनामकर्म- ऐसी नामकर्म की तेरह प्रकृतियाँ तथा स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा और प्रचला-प्रचला, ये निद्रा-त्रिक; सभी मिलाकर उनतीस प्रकृतियों के सत्ताकाल की अन्तिम आवलिका में अन्य प्रकृतियों में स्तिबुक संक्रमण से संक्रमण हो किन्तु क्षय न हो, तब तक उनके एक समय न्यून एक आवलिका परिमाण स्पर्द्धक होते हैं। उस आवलिका काल में एक समय में स्तिबुक संक्रमण से संक्रमण हो तब दो समय न्यून आवलिका परिमाण स्पर्द्धक होते हैं। इसीप्रकार जैसे-जैसे एक-एक समय में स्तिबुक संक्रम हो, वैसे-वैसे एक-एक समय न्यून आवलिका परिमाण मध्यम स्पर्द्धक होते हैं । ऐसा करते हुए जब उनकी स्वरूप सत्ता की
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