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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{312} अपेक्षा एक समय की स्थिति शेष रहे, तब एक समय परिमाण जघन्य स्पर्धक होते हैं। इसप्रकार अनुदयवती उपर्युक्त मिथ्यात्वादि उनतीस प्रकृतियों की चरम आवलिका में एक समय न्यून आवलिका परिमाण स्पर्द्धक होते हैं और अन्य स्थितियों में एक स्पर्द्धक मिलकर आवलिकाओं के समय परिमाण स्पर्द्धक होते हैं। इसप्रकार इन उनतीस प्रकृतियों के आवलिका के समय परिमाण स्पर्द्धक होते हैं। क्षीणमोह गुणस्थान में जिनका क्षय होता है, उन उदयवती प्रकृतियों के स्पर्द्धकों की संख्या क्षीणमोह गुणस्थान का जितना काल है, उससे एक अधिक संख्यातवें भाग के समतुल्य होती है और निद्रा तथा प्रचला के स्पर्द्धक उनसे भी एक न्यून होते हैं, क्योंकि निद्रा अनुदयवती प्रकृति है। उदयवती प्रकृतियों की स्वरूपसत्ता की अपेक्षा जितनी कालस्थिति शेष रहे, उसकी अपेक्षा से अनुदयवती प्रकृतियों की कालस्थिति एक समय न्यून होती है, इसीलिए उदयवती की अपेक्षा से उनमें एक स्पर्द्धक कम होता है। क्षीणकषाय गुणस्थान में जिन कर्मप्रकृतियों की सत्ता का क्षय होता हैं, उनके स्पर्द्धक गुणस्थान के संख्यातवें भाग के समतुल्य क्यों और कैसे होते है? क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती कोई क्षपितकाश आत्मा उस गुणस्थान का जितना काल है, उसका संख्यातवाँ भाग जाए और अन्तर्मुहूर्त परिमाण संख्यातवाँ एक भाग शेष रहे, तब ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की चार और अन्तराय की पांच ऐसे चौदह प्रकृतियों की उस समय में सत्ता में जितनी भी स्थिति हो, उसे सर्व अपवर्तना से अपवर्तित करके अर्थात् कम करके क्षीणमोह गुणस्थान का जितना काल शेष हो उतनी करते हैं और निद्रा तथा प्रचला की एक समय हीन करते हैं। चूंकि वे दोनों प्रकृतियाँ अनुदयवती होने से चरम समय में स्वस्वरूप से उनके दलिक सत्ता में नहीं होते हैं, परंतु पररूप में होते हैं। इसीलिए उन दोनों की स्थितिसत्ता स्वरूप की अपेक्षा से एक समय न्यून करते हैं। जब सर्व अपवर्तना से अपवर्तित कर क्षीणकषाय गुणस्थान के संख्यातवाँ भाग परिमाण कालस्थिति शेष रहे, तब उन प्रकृतियों में स्थितिघात, रसघात आदि नही होता है और गुणश्रेणी प्रवर्तमान नही होती है। किसी भी कर्मप्रकृति में जब तक स्थितिघात आदि हो और गुणश्रेणी प्रवर्तमान हो, तब तक उस प्रकृति की सम्पूर्ण कालस्थिति का एक स्पर्द्धक होता है और स्थितिघात तथा गुणश्रेणी समाप्त हो जाने के बाद जितनी कालस्थिति सत्ता से शेष रहती है उस स्थिति का एक स्पर्द्धक, एक समय कम जितनी स्थिति रहे उसका एक स्पर्द्धक इसी प्रकार जैसे-जैसे समय कम होता जाए वैसे-वैसे जितनी-जितनी स्थिति शेष रहे उसका एक-एक स्पर्द्धक होता है। यावत् चरमसमय शेष रहे, तब उसका एक स्पर्द्धक होता है। क्षीणमोह गुणस्थान के काल का संख्यातवाँ भाग शेष रहे और स्थितिघात तथा गुणश्रेणी समाप्त हो जाए, तब ज्ञानावरणीय आदि चौदह प्रकृतियों के स्पर्द्धक होते हैं, किन्तु जहाँ स्थितिघातादि प्रवर्तमान है, क्षीणमोह गुणस्थान उस सम्पूर्ण स्थिति का एक स्पर्द्धक इसी तरह एक अधिक संख्यातवें भाग के समयों के समतुल्य ज्ञानावरणीयादि चौदह कर्मप्रकृतियों के स्पर्द्धक होते है, निद्राद्विक में एक कम होता है। यहाँ स्मरण रखने योग्य है कि उदयवती प्रकृतियों की अपेक्षा अनुदयवती प्रकृतियों का स्पर्द्धक एक कम ही होता है। इसप्रकार क्षीणमोह गुणस्थान के संख्यातवाँ भाग परिमाण स्पर्द्धक होते है। स्पर्द्धक कैसे होते हैं ? इसे स्पष्ट करते हुए बताया है कि क्षीणकषाय गुणस्थान के काल का संख्यातवाँ भाग व्यतीत हो जाने के बाद एक भाग शेष रहे, तब कर्मों की सत्तागत स्थिति को कम करके जो संख्यातवाँ भाग परिमाण रही थी, उसे भी यथासमय उदय-उदीरणा से क्रमशः क्षय करके एक भाग स्थिति शेष रहे, तब क्षपितकांश किसी आत्मा में कम से कम जो कर्मप्रदेशों की सत्ता होती है, उसे वह चरम समयाश्रित पहला प्रदेशसत्कर्मस्थान कहा जाता है। उसमें एक परमाणु का प्रक्षेप करने से दूसरा अर्थात् अन्तिम प्रदेशसत्कर्मस्थान से एक अधिक प्रदेश की सत्तावाला क्षपितकांश किसी आत्मा को जीव आश्रयी दूसरा प्रदेशसत्कर्म स्थान, इसी तरह एक-एक परमाणु प्रदेश की निरंतर वृद्धि करते हुए प्रदेशसत्कर्मस्थानों की वहाँ तक वृद्धि करना कि चरम स्थिति में रहे हुए गुणितकाश आत्मा के सर्वोत्कृष्ट प्रदेशों की संख्या का अन्तिम प्रदेशसत्कर्मस्थान हो। ऐसे अनन्त प्रदेशी सत्कर्मस्थानों के पिंडरूप चरमस्थिति स्थान आश्रयी एक स्पर्द्धक होता है। दो स्थिति शेष रहे तब पूर्वोक्त प्रकार का दूसरा स्पर्द्धक होता है। इसी तरह सर्व अपवर्तना से क्षीणकषाय गुणस्थान के काल के तुल्य सत्तागत स्थिति के जितने समय होते हैं, उतने स्पर्द्धक होते हैं। चरम स्थितिघात के चरम प्रक्षेप से आरंभ कर पश्चानुपूर्वी के अनुक्रम से बढ़ाते-बढ़ाते अपनी सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्तावाला सम्पूर्ण स्थिति का एक स्पर्द्धक होता है। ज्ञानावरणीय की पाँचों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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