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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय.......{313} उदयवर्ती प्रकृतियों के एक-एक स्पर्द्धकों की वृद्धि करने पर जितने स्पर्द्धक होते हैं, वे क्षीणकषाय गुणस्थान के संख्यातवें भाग के चरम समय के समतुल्य होते हैं, किन्तु निद्रा और प्रचला की क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय में सत्ता नहीं होने से उनके स्पर्द्धक द्विचरम समय कम की स्थिति के होते हैं, इसीलिए चरम समय में स्पर्द्धक होते हैं। उससे निद्राद्विक के स्पर्द्धक अधिक होते हैं। इन ज्ञानावरण पंचक और निद्रादिक के कुल स्पर्द्धक क्षीणकषाय गुणस्थान के संख्यातवें भाग के समय परिमाण ही होते है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एकसौ पचहत्तरवी गाथा में कर्मों के स्पर्द्धकों की विवेचना की है। क्षीणमोह गुणस्थान में जिनकी सत्ता का व्यवच्छेद होता है, उन ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की चार और अन्तराय की पाँच-ऐसी चौदह प्रकृतियों के कुल स्पर्द्धकों की संख्या क्षीणकषाय गुणस्थान के संख्यातवें भाग के समतुल्य होती हैं, परंतु एक स्पर्द्धक अधिक होता है। चरम स्थितिघात के चरम प्रक्षेप से आरंभ कर अपनी-अपनी उत्कष्ट प्रदेशसत्ता को लिए हए सम्पूर्ण कालस्थिति से एक स्पर्द्धक अधिक क्षीणकषाय गुणस्थान के संख्यातवें भाग के समयों के समतुल्य स्पर्द्धकों की संख्या होती है। निद्रा और प्रचला की क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय में स्वरूप सत्ता नहीं होने से चरम समय सम्बन्धी एक स्पर्द्धक हीन निद्रा और प्रचला के स्पर्द्धक होते है अर्थात् ज्ञानावरणीयादि चौदह प्रकृतियों के जितने स्पर्द्धक होते हैं, उसमें एक हीन निद्राद्विक के स्पर्द्धक होते हैं। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ छयोत्तरवी गाथा में चौदहवें गुणस्थान में स्पर्द्धकों की संख्या बताते हुए कहा है कि अयोगीकेवली गुणस्थान में जिन कर्मप्रकतियों की सत्ता होती है, वे इसप्रकार है - मनुष्यगति, मनुष्याय, पंचेन्द्रियजाति,त्रसनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, बादरनामकर्म, तीर्थंकरनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म, एक वेदनीय और उच्चगोत्रये बारह उदयवती प्रकृतियों के कुल स्पर्द्धकों की संख्या अयोगीकेवली गुणस्थान के काल के जितने समय होते हैं, उससे एक स्पर्द्धक अधिक होता है। क्षपितकांश किसी आत्मा में अयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय में इन कर्मप्रकतियों के प्रदेशों की सर्वजघन्य सत्ता होती है, वह पहला प्रदेशसत्कर्मस्थान हआ। उसमें एक कर्म परमाण मिलाने से दूसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान, दो परमाण मिलाने से तीसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान. इसी क्रम में अयोगीकेवली गणस्थान के चरम समय में रहते हए अनेक जीवों की अपेक्षा से एक-एक परमाण मिलाते हए निरंतर प्रदेशसत्कर्मस्थानों की तब तक गणना करना चाहिए. जब तक कि उसी समय में रहते हए गणितकाश आत्मा को सर्वोत्कष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान हो । इसीप्रकार चरम स्थिति आश्रयी एक स्पर्द्धक होते हैं । दो समय की स्थिति शेष रहे तब दो स्थिति का दूसरा स्पर्द्धक, तीन समय की स्थिति शेष रहे तब तीन स्थिति का तीसरा स्पर्द्धक होता है। ऐसे निरंतर अयोगीकेवली गणस्थान के पहले समय तक जानना चाहिए तथा सयोगीकेवली गणस्थान के चरम समय में होने वाले चरम स्थितिघात के चरम प्रक्षेप से आरंभ कर पश्चानुपूर्वी के अनुक्रम से बढ़ते निरंतर प्रदेशसत्कर्मस्थानों तक अपनी-अपनी उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। सम्पूर्ण स्थिति सम्बन्धी यथासम्भव एक स्पर्द्धक होता है, इसीलिए एक स्पर्द्धक से अधिक अयोगीकेवली गुणस्थान के समय प्रमाण उदयवती प्रकृतियों के स्पर्द्धक होते हैं। अयोगीकेवली गुणस्थान में जिनकी सत्ता होती है, उन अनुदयवती प्रकृतियों के स्पर्द्धकों की संख्या उदयवर्ती प्रकृतियों से एक स्पर्द्धक न्यून होती है, क्योंकि अयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय में उन अनुदयवती प्रकृतियों की स्वरूपसत्ता नहीं होती है, इसीलिए चरमस्थिति सम्बन्धी एक स्पर्द्धक न्यून होता है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ सतहत्तरवी गाथा में बताया गया है कि ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच प्रकृतियों के दलिकों के अन्तिम स्थितिखण्ड का क्षीणकषाय गुणस्थान में और अयोगीकेवली में जिन प्रकृतियों की सत्ता होती है, उन प्रकृतियों के दलिकों के अन्तिम स्थितिखण्ड का सयोगीकेवली गुणस्थान में स्थितिघातादि करते समय अन्य प्रकृतियों में प्रक्षेप होता है, उसमें अन्तिम स्थितिघात के चरम समय में सबसे अल्प जो चरम प्रक्षेप होता है, वहाँ से आरंभकर पश्चानुपूर्वी के अनुक्रम से बढ़ते अपनी-अपनी सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्ता पर्यन्त जो प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं, उन प्रदेशसत्कर्मस्थानों के समूह रूप सम्पूर्ण स्थिति का जो एक स्पर्द्धक होता है, वहीं एक स्पर्द्धक क्षीणकषाय गुणस्थान में जिनके क्षय होते हैं, उन कर्मप्रकृतियों में तथा अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव में जिन कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है, उन उदयवती प्रकृतियों में अधिक होती है। चरम स्थितिघात के चरम समय प्रक्षेप से आरंभ कर सम्पूर्ण स्थिति का जो स्पर्द्धक उदयवती कर्मप्रकृतियों में होता है, वह Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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