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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
पंचम अध्याय........{314) अनुदयवती कर्मप्रकृतियों में भी होता है, परंतु उदयवती से अनुदयवती कर्मप्रकृतियों में एक कम होता है। उदयवती कर्मप्रकृतियों के चरम समय में स्वस्वरूप दलिकों का ही अनुभव होता है, इसीलिए उनका चरमसमयाश्रित स्पर्द्धक होता है, परंतु अनुदयवती प्रकृतियों का उदयवती प्रकृतियों में स्तिबुक संक्रम से संक्रमण होने से चरम समय में उनके दलिकों का स्वस्वरूप में अनुभव नहीं होता है, इसीलिए उनमें चरमसमयाश्रित एक स्पर्द्धक नहीं होता है, इसी कारण अनुदयवती कर्मप्रकृतियों के स्पर्द्धकों की संख्या एक कम होती है।
पंचसंग्रह के पंचम द्वार की गाथा क्रमांक-१७६ में यशःकीर्तिनामकर्म और संज्वलन लोभ के जघन्य स्पर्द्धको का विवेचन किया गया है। अभव्य प्रायोग्य कर्मो की जघन्य स्थिति की सत्तावाली कोई भव्य आत्मा त्रसकाय में उत्पन्न होकर, वहाँ चार बार मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम किए बिना, शेष काश की सत्ता का क्षय करने के लिए प्रयत्नपूर्वक कर्मपुद्गलों का अत्तिक मात्रा में क्षय करते हुए और दीर्घकाल तक संयम का पालन करते हुए मोहनीय कर्म का पूर्णतः क्षय करने के लिए क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हो, उस क्षपितकाश आत्मा को अप्रमत्त गुणस्थान के चरम समय में जितने सत्तास्थान सत्ता में होते हैं, उन सभी स्थानो में जो कम से कम प्रदेशों की सत्तावाले होते हैं, उनके समूह का पहला जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है, तत्पश्चात वहाँ से आरंभ कर भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा से एक-एक परमाणु की वृद्धि करते हुए, यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं । यावत् गुणितकाश आत्मा सर्वोत्कृष्ट, प्रदेशसत्कर्मस्थान वाली होती है । इन सभी प्रदेशसत्कर्मस्थानों के समूह रूप एक स्पर्द्धक संज्वलन लोभ और यशःकीर्तिनामकर्म- इन दो प्रकृतियों में उपशमश्रेणी नहीं करनेवाले जीवों को होता है। त्रस के उस भाव को उपशम श्रेणी के बिना कहा हैं। यदि उपशमश्रेणी करें, तो अन्य कर्मप्रकृतियों के दलिक अधिक मात्रा में गुणसंक्रमण के द्वारा उक्त दोनों प्रकृतियों में संक्रमण होते है, जिससे जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान सम्भव नहीं होता है, इसीलिए यह कहा गया है कि जघन्य प्रदेशवाला सत्कर्मस्थान, श्रेणी नहीं करनेवाले जीवों को होता है। विशिष्ट शब्दों के अर्थ :
जिस आत्मा में कर्मप्रदेशों की सत्ता कम से कम होती है, वह आत्मा क्षपितकाश कहलाती है। जिस आत्मा में कर्मप्रदेशों की सत्ता अधिक से अधिक होती है, वह आत्मा गुणितकांश कहलाती है। लघुक्षपक का तात्पर्य यह है कि जो अत्यन्त अल्प समय में ही कर्मों का क्षय कर देता है। उदाहरण के तौर पर जो साधक आठ वर्ष की आयु में सर्वविरति को स्वीकार कर अन्तर्मुहूर्त में ही क्षपकश्रेणी से आरोहण कर केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है, वह लघुक्षपक कहलाता है । ऐसा साधक अल्प समय में हर उत्कृष्ट प्रदेशोदय के द्वारा कर्मों का शीघ्र क्षपण करता है, अतः लघुक्षपक कहलाता है। इसके विपरीत चिरक्षपक उसे कहते हैं, जो पूर्वकोटिवर्ष आयुष्यवाला साधक पर्याप्त समय के पश्चात् संयम को स्वीकार कर दीर्घकाल तक संयम का पालन करता हुआ, जब आयुष्य का अति अल्प काल शेष रहे, तब क्षपक श्रेणी को प्राप्त करे - ऐसा साधक चिरक्षपक कहलाता है, क्योंकि उसने चिरकाल तक साधना करके अपने कर्मों का क्षय किया है । पंचसंग्रह के कर्मप्रकृति नामक द्वितीय खण्ड में प्रतिपादित गुणस्थान-विचार :
पंचसंग्रह के कम्मपयडी नामक द्वितीय खंड में कर्मप्रकृतियों के बन्धनकरण, संक्रमणकरण, उद्वर्तनाकरण, उदीरणाकरण, उपशमनाकरण-इन पांच करणों की चर्चा है। इसके द्वितीय संक्रमणकरण की गाथा क्रमांक तीन में यह बताया गया है कि सास्वादन एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव दर्शनमोहनीय कर्म की तीनों उत्तरप्रकृतियों में से किसी भी प्रकृति का किसी प्रकृति में संक्रमण नहीं करते हैं। मिश्रमोहनीय के उदय में सम्यक्त्व मोहनीय का संक्रमण होता ही नहीं, अतः इन दोनों गुणस्थानवी जीव मोहनीयकर्म की किसी भी कर्मप्रकृति का संक्रमण करने में असमर्थ है। संक्रमणकरण की गाथा क्रमांक नौ में यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के अन्तिम चरण में तीन करण करते हुए तथा सम्यग्दृष्टि आदि अग्रिम गुणस्थानों में आठों ही कर्मों की . उत्तरप्रकृतियों के अपनी-अपनी योग्यता के अनुरूप अपने वर्ग की अन्य-अन्य उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण की संभावना होती है।
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