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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{315} यहां विशेष रूप से यह ज्ञातव्य है कि सास्वादन नामक द्वितीय गुणस्थान में भी चाहे दर्शनमोह का संक्रमण न हो, किन्तु नीचगोत्र का उच्चगोत्र में संक्रमण सम्भव होता है।
पंचसंग्रह के द्वितीय खंड के इस दूसरे संक्रमण करण में इस सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की गई है कि किन-किन उत्तर कर्म प्रकृतियों का किन-किन उत्तर कर्मप्रकृतियों में किन-किन गुणस्थानों में संक्रमण सम्भव होता है और किन-किन उत्तर कर्म प्रकृतियों का संक्रमण नहीं होता है, इसकी विस्तार से चर्चा की गई है। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि किस गुणस्थानवी जीव कितनी उत्तर कर्मप्रकृतियों का किस क्रम से संक्रमण करते हैं। इस चर्चा में अग्रिम-अग्रिम गुणस्थानों में आरोहण करते समय और अग्रिम गुणस्थानों से पतित होते समय तत्वत् कर्मप्रकृतियों का जो संक्रमण होता है, उसकी भी अति विस्तार से चर्चा की गई है। साथ ही अष्टमूल कर्मप्रकृतियों को लेकर उनके संक्रमण स्थान की और पतद्ग्रहस्थान की भी चर्चा है, किन्तु विस्तार भय से यहां यह सम्पूर्ण चर्चा करना सम्भव नहीं है। मात्र इतना जान लेना ही पर्याप्त है कि पंचसंग्रह के इस द्वितीय खंड के संक्रमणकरण नाम विभाग में किस गुणस्थान में आरोहण करते समय और उससे पतित होते समय किन उत्तर कर्मप्रकृतियों का किन उत्तर कर्मप्रकृतियों में संक्रमण होता है, इसकी तथा उनके संक्रमण स्थानों पर पतद्ग्रह स्थानों की चर्चा है।
पंचसंग्रह के द्वितीय खंड के उद्वर्तना और अपवर्तनाकरण नामक विभाग में किन कर्मप्रकृतियों का उद्वर्तन और अपवर्तन किस रूप में होता है, इसकी चर्चा है, किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में इस चर्चा को गुणस्थानों में अवतरित नहीं किया गया है, अतः इस सम्बन्ध में यहाँ विशेष चर्चा आवश्यक प्रतीत नहीं होती है। __पंचसंग्रह के द्वितीयखंड अपवर्तना और उद्वर्तनाकरण के पश्चात् चतुर्थ उदीरणाकरण का क्रम आता है । सत्ता में रहे हुए कर्म दलिकों को वहाँ से खींचकर उदय में लाने की प्रक्रिया को उदीरणाकरण कहते हैं। इसमें सर्वप्रथम यह बताया गया है कि वेदनीय और मोहनीय कर्म की उदीरणा सादि, अनादि, अनन्त और सांत-ऐसे चार रूपों में होती है, जो मिथ्यात्व गुणास्थान से प्रारम्भ होकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है । वेदनीय और मोहनीय के अतिरिक्त ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, नाम, गोत्र और अन्तराय-इन पांच मूल कर्मप्रकृतियों की उदीरणा अनादि, ध्रुव और अधुव - ऐसी तीन प्रकार से होती हैं । इनमें से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्म की उदीरणा क्षीणमोह गुणस्थान की चरम आवलिका के पूर्व तक होती है तथा नाम
और गोत्र कर्म की उदीरणा सयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय तक होती है। भव्य और अभव्य दोनों की अपेक्षा से यह उदीरणा अनादि है, किन्तु भव्य जीवों में क्षपकश्रेणी से आरोहण की अपेक्षा से यह उदीरणा बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में समाप्त हो जाती है, अतः अनादि सांत है, किन्तु अभव्य जीवों की अपेक्षा से तो यह अनादि-अनन्त है।
पंचसंग्रह के द्वितीयखंड के इस उदीरणाकरण में इस सामान्य चर्चा के पश्चात् मूल और उत्तरकर्मप्रकृतियों की उदीरणा कौन से और किस गुणस्थान में अवस्थित जीव करता है, इसकी विस्तृत चर्चा की गई है। इसमें कहा गया है कि चारों घातीकर्मों की कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करनेवाले प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थानवी जीव होते हैं। पुनः वेदनीय और आयुष्यइन दो अघातीकर्मों की उदीरणा मात्र प्रमत्तसंयत गणस्थान तक ही सम्भव होती है, क्योंकि प्रमत्तसंयत से आगे के गुणस्थानवी जीवों में ऐसे परिणाम नहीं होने से वे इनकी उदीरणा नहीं करते हैं, किन्तु नाम और गोत्र - इन दो अघाती कर्मों की उदीरणा सयोगीकेवली गुणस्थान तक के जीव करते हैं। इसके पश्चात् इस उदीरणाकरण में विभिन्न कायों और विभिन्न गतियों में रहे हुए किस गुणस्थानवी जीव किन उत्तरकर्मप्रकृतियों की उदीरणा करते हैं, इसकी विस्तार से चर्चा उपलब्ध होती है, जैसे हास्यादिषट्क के उदीरक अपूर्वकरण गुणस्थान तक के जीव होते हैं। आगे अधिक गहराई में जाते हुए यह भी बताया गया है कि उच्छ्वास एवं स्वर जैसी नामकर्म की कर्मप्रकृतियों के उदीरक प्रथम गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के जीव होते हैं। इसके पश्चात् कौन से गुणस्थानवी जीव किन कर्मप्रकृतियों के जघन्य अथवा उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा करते है, इसकी भी विस्तृत चर्चा इस उदीरणाकरण नामक द्वार में उपलब्ध होती है, किन्तु पूर्व अध्यायों की विषयवस्तु के पिष्ट-पेषण एवं अधिक विस्तार के भय के कारण हम इस चर्चा को यहीं सीमित करना उचित समझते है। इस सन्दर्भ में विशेष जानकारी के लिए पंचसंग्रह के द्वितीय खण्ड के उदीरणाकरण और उसकी टीका को देखा जा सकता है ।
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