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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{316} पंचसंग्रह के कम्मपयडी नामक द्वितीयखण्ड में उदीरणाकरण के पश्चात् उपशमनाकरण की चर्चा है। उपशमना का तात्पर्य सत्तागत कर्मप्रकृतियों के उदय को कुछ काल के लिए स्थगित कर देना है। संक्षेप में कर्मों के विपाक को स्थगित करने को उपशमनाकरण कहते हैं। उपशमनाकरण में सत्ता में रही हुई कर्मप्रकृतियों के उदय अर्थात् उनके विपाक को रोक दिया जाता है। उपशमना दो प्रकार की होती हैं -देश उपशमना और सर्व उपशमना। देश उपशमना तो कोई भी जीव कर सकता है, किन्तु सर्वउपशमना तो अपूर्वकरण करते समय ही सम्भव होती है। यह अपूर्वकरण प्रथम गुणस्थान से चौथे गुणस्थान में जाते समय अथवा सातवें गुणस्थान के अन्त में अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करते समय होता है। प्रथम गुणस्थान के अन्त में चतुर्थ गुणस्थान में आरोहण करते समय तथा सातवें के अन्त में जो अपूर्वकरण होता है, वह अपूर्वकरण गुणस्थान से भिन्न है। इस उपशमना के काल का अन्त अवश्य होता है और पूर्व में जिन कर्मप्रकृतियों का विपाक या उदय स्थगित किया गया था, वे पुनः उदय में अवश्य आती हैं, क्योंकि उदय में आए बिना उनका क्षय नहीं होता है। उपशम सम्यक्त्व का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छ: आवलिका काल शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से जीव सास्वादन गुणस्थान का स्पर्श करता है। ___पंचसंग्रह के द्वितीय खण्ड के उपशमनाकरण में यह बताया गया है कि मिथ्यात्वमोहनीय की विभिन्न कर्मप्रकृतियों का उपशम करते हुए जीव उपशान्तमोह गुणस्थान तक अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है, किन्तु यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि उपशमन के द्वारा जो व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक विकास यात्रा को प्रारम्भ करता है, वह अवश्य ही पुनः पतित होता है। उपशमनाकरण के द्वारा आध्यात्मिक विकास यात्रा किस प्रकार होती है, इसकी विस्तृत चर्चा इस उपशमनाकरण में की गई है। इसमें बताया गया है कि कोई जीव उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने के साथ ही देशविरति और सर्वविरति को भी प्राप्त कर लेता है। मात्र यही नहीं, सप्तम अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त करके आगे उपशमश्रेणी से आरोहण करते हुए वह उपशान्तमोह गुणस्थान तक की यात्रा पूर्ण कर लेता है। इन अवस्थाओं में किन-किन कर्मप्रकृतियों का किस-किस रूप से और किस क्रम से उपशमन होता है और उनका उपशमक या स्वामी कौन होता है, इसकी विस्तृत चर्चा इस उपशमनाकरण में की गई है। विस्तार भय से हम उनकी गहराईयों में जाना नहीं चाहते, फिर भी जो महत्वपूर्ण तथ्य इस उपशमनाकरण में है वे यह कि यदि व्यक्ति दर्शनसप्तक का क्षय करके और चारित्रमोह की उपशमना करते हुए आगे बढ़ता है तो वह अधिक से अधिक तीसरे या चौथे भव में मुक्ति को अवश्य प्राप्त कर लेता है। दर्शनमोहनीय का क्षय करके चारित्र मोहनीय की उपशमना किस-किस रूप में होती है, इसकी विस्तृत चर्चा उपशमनाकरण में उपलब्ध है। साथ ही उसमें यह भी बताया गया है कि अग्रिम अवस्थाओं से पा समय किन-किन कर्मप्रकृतियों में किस क्रम से उदय होता है। इस प्रकरण में यह भी कहा गया है कि एक भव में चारित्र कर्म का सर्वथा उपशम कोई भी व्यक्ति दो बार से अधिक नहीं करता है। जहाँ तक देश उपशम का प्रश्न है, उसके सम्बन्ध में यह कहा गया है कि देश उपशम केवल उत्तर कर्मप्रकृतियों का ही होता है। यह देश उपशमना भी चार प्रकार की होती है -प्रकृति देश उपशमना, स्थिति देश उपशमना, अनुभाग देश उपशमना, और प्रदेश देश उपशमना। गुणस्थान सिद्धान्त की अपेक्षा देशोपशमना प्रथम से लेकर आठवें गुणस्थान के चरम समय तक ही सम्भव होती है, किन्तु सर्वोपशमना तो ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान तक होती है। अग्रिम तीन गुणस्थानों में उपशमना सम्भव नहीं होती है, क्योंकि ये तीन गुणस्थान अर्थात् क्षीणमोह, सयोगीकेवली
और अयोगीकेवली गुणस्थान केवल क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाली आत्मा को ही प्राप्त है। पंचसंग्रह के सप्ततिका नामक तृतीयखण्ड में प्रतिपादित गुणस्थान सम्बन्धी विचार :
पंचसंग्रह के तृतीय खण्ड, सप्ततिका के अन्तर्गत मूल और उत्तर कर्मप्रकृतियों के सादि-अनादि बन्धविधान का विवेचन किया गया है। जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचन का प्रश्न है, इस खण्ड की आठवीं गाथा में यह बताया गया है कि नारक और देव में चार गुणस्थान, तिर्यंच में पाँच गुणस्थान और मनुष्य में चौदह गुणस्थान सम्भव हैं ।
-बन्धविधान के विषय में चर्चा करते हुए पंचसंग्रह के तृतीयखण्ड के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि अष्टकर्मों में ज्ञानावरणीय कर्म और अन्तराय कर्म इन दोनों के बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थान एक ही होते हैं, क्योंकि ज्ञानावरणीय
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