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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... पंचम अध्याय.......... (310) पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रऋषभनाराच संघयण, सातावेदनीय, संज्वलन चतुष्क, उच्छ्वास, शुभ विहायोगति, पुरुषवेद और पराघात - इन बयालीस प्रकृतियों की अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्ता, सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव - ऐसी चार की होती है। वज्रऋषभनाराच संघयण को छोड़कर इकतालीस कर्मप्रकृतियों के कर्मप्रदेशों की उत्कृष्ट सत्ता क्षपक श्रेणी में आरोहण करने वाली गुणितकर्मांश आत्मा को इन इन कर्मप्रकृतियों के बन्ध के अन्तिम समय में होती है, किन्तु वह एक समय में होने से सादि सान्त है और इसके अतिरिक्त अन्य स्थितियों में कर्म प्रदेशसत्ता अनुत्कृष्ट होती है। अनुत्कृष्ट सत्ता, उत्कृष्ट सत्ता के बाद होने के कारण क्षपक श्रेणी वाले जीवों को सादि, जिन्हें क्षपकश्रेणी प्राप्त नहीं हुई है उन्हें अनादि, अभव्य को ध्रुव और भव्य को अध्रुव है । वज्रऋषभनाराच संघयण नामक नामकर्म की प्रकृति के उत्कृष्ट प्रदेशों की सत्ता सातवें नरक के मिथ्यात्व गुणस्थान की ओर अभिमुख गुणितकर्मांश सम्यग्दृष्टि आत्मा को होती है। यह सादि एवं सांत होती है, शेष प्रदेशसत्ता अनुत्कृष्ट है। अनुत्कृष्ट सत्ता, उत्कृष्ट सत्ता के बाद होने के कारण उस अवस्था को प्राप्त जीवों को सादि, उस अवस्था को प्राप्त नहीं करनेवाले जीवों को अनादि, भव्य को ध्रुव और भव्य को अध्रुव होती है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क, संज्वलन लोभ और यशः कीर्ति- इन छः प्रकृतियों के अतिरिक्त शेष एक सौ चौबीस ध्रुवसत्तावाली कर्मप्रकृतियों की अजघन्य प्रदेश सत्ता अनादि, ध्रुव और अध्रुव- ऐसी तीन प्रकार की है । अनन्तानुबन्ध कषाय चतुष्क की उद्वर्तना करनेवाले क्षपित कर्मांश किसी आत्मा को जब अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क की स्थिति एक समय मात्र शेष रहे, तब उसके प्रदेशों की सत्ता जघन्य अर्थात् सबसे कम होती है। इसका काल मात्र एक समय होने से यह जघन्य प्रदेशसत्ता सादि सान्त है, शेष सभी कर्मप्रकृतियों के कर्मप्रदेशों की सत्ता अजघन्य होती है। अजघन्य सत्ता अनन्तानुबन्धी की उद्वर्तना करने के बाद मिथ्यात्व के निमित्त से, जब अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क फिर से बन्ध हो, तब तक होती है, इसीलिए सादि, किन्तु आज तक जिन्होंने अनन्तानुबन्धी की उद्वर्तना नहीं की है, उन्हें यह अजघन्य सत्ता अनादि, अभव्य को ' ध्रुव और भव्य को अध्रुव होती है। संज्वलन लोभ और यशः कीर्तिनामकर्म की अजघन्य प्रदेशसत्ता इन्हें क्षय करने के लिए उद्यमवंत क्षपितकर्मांश आत्मा को क्षपकश्रेणी से आरोहण करते समय अप्रमत्त गुणस्थान के चरम समय में होती है। यह एक समय की स्थिति की होने से सादि सांत है, अन्य स्थिति में प्रदेशसत्ता अजघन्य है । अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम समय में गुणसंक्रमण से अन्य अशुभ कर्मप्रकृतियों के अधिक दलिकों के प्राप्त होने से इस गुणस्थान में कर्म दलिकों की जो अधिक मात्रा में अवस्थिति होती है, वह सादि है । उस स्थान को प्राप्त नहीं करनेवाले को उन कर्मप्रकृतियों के प्रदेशों की सत्ता अनादि, अभव्य को 'धुव और भव्य को अध्रुव होती है, शेष कर्मप्रकृतियों के प्रदेशों की सत्ता के विकल्प सादि और सांत - ऐसे दो प्रकार से होते हैं । ध्रुवबन्धी शुभ प्रकृतियों और त्रसदशक आदि बयालीस कर्मप्रकृतियों के प्रदेशों की सत्ता जघन्य, अजघन्य और उत्कृष्ट इन तीन विकल्पों में सादि और सांत ऐसी दो प्रकार की होती हैं । सभी कर्मप्रकृतियाँ सादि और सान्त होती है । उसमें से त्रसदशक आदि शुभ ध्रुवबन्धवाली बयालीस कर्मप्रकृतियों के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे तीन विकल्प होते हैं। वे तीनों विकल्प ही सादि और सान्त होते हैं। इसमें से उत्कृष्ट प्रदेशसत्तावाली सादि और सान्त कर्मप्रकृतियों की चर्चा पूर्व में की है। अब आगे मध्यम और जघन्य इन दो विकल्पों के सम्बन्ध में विचार करेंगे । ध्रुवसत्तावाली एक सौ चौबीस कर्मप्रकृतियों के प्रदेशों की सत्ता के जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट- ये तीनों विकल्प सादि और सांत होते हैं। पूर्वोक्त बयालीस प्रकृतियों के अतिरिक्त शेष कर्मप्रकृतियों के प्रदेशों की सत्ता के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट-ये दो विकल्प गुणितकर्मांश मिध्यादृष्टि जीव में सम्भव होते हैं, ये सादि तथा सांत ऐसे दो प्रकार के हैं। अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, संज्वलन लोभ और यशः कीर्तिनामकर्म के प्रदेशों की सत्ता के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट- ऐसे दो विकल्प भी होते हैं। शेष अध्रुवसत्तावाली कर्मप्रकृतियों के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य - ऐसे चारों विकल्प, उनकी सत्ता अध्रुव होने से, सादि और सांत ही होते हैं । पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ साठवीं गाथा में कहा है कि चार बार मोहनीय कर्म का उपशमन कर शीघ्र ही कर्म का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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