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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..
पंचम अध्याय........{309)
न्यून उत्कृष्ट स्थितिवाली असातावेदनीय का संक्रमण द्वारा जो आगम हुआ उसमें उदय आवलिका मिलाने पर जितनी कालस्थिति हो, उतनी सातावेदनीय कर्म की उत्कृष्ट कालस्थिति की सत्ता जानना चाहिए। इसी प्रकार सम्यक्त्व मोहनीय के बिना शेष मोहनीय कर्म की प्रकृतियों की दो आवलिका न्यून स्वजातीय प्रकृतियों के उत्कृष्ट कालस्थिति के दलिकों के संक्रमण से जो आगम होता है, उसे उदयावलिका से योजित करने पर जो स्थिति होती है, वह सम्यक्त्व मोहनीय की उत्कष्ट स्थिति सत्ता होती है। मिथ्यात्व मोहनीय की उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त रहकर सम्यक्त्व प्राप्तकर मिथ्यात्वमोह की उदय आवलिका की अन्तर्मुहर्त न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम परिमाण उत्कष्ट स्थिति के मिथ्यात्व मोहनीय का सम्यक्त्व मोहनीय में संक्रमण करने पर सम्यक्त्व मोहनीय की उदयावलिका अन्तर्मुहूर्त न्यून उत्कृष्ट स्थिति का जो आगम हुआ उसमें उदय आवलिका का काल मिलाने पर जो परिमाण हो, वही सम्यक्त्व मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति होती है।
जब किसी प्रकृति का उदय न हो, तब संक्रमण से जिन प्रकृतियों की उत्कृष्ट कालस्थिति प्राप्त हो, तो वे अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियाँ कही जाती हैं। देवद्विक, सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय, आहारक सप्तक, मनुष्यानुपूर्वी, विकलेन्द्रिय, सूक्ष्मनामकर्म, साधारणनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म और तीर्थकरनामकर्म - इन संक्रमण योग्य अठारह अनुदित कर्मप्रकृतियों का दो आवलिका न्यून स्वजातीय प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को जो संक्रमण प्राप्त हो, उसमें एक समय न्यून आवलिका सहित करने से जो स्थिति प्राप्त हो, उतनी उत्कृष्ट कालस्थिति होती है। वे इसप्रकार हैं -कोई एक मनुष्य उत्कृष्ट संक्लेश वश से नरकगति की उत्कृष्ट स्थिति बांधकर परिणाम का परावर्तन होने से देवगति बांधना आरंभ करे, उसमें जिनकी बन्ध आवलिका व्यतीत हो चुकी है, उन्हें छोड़कर दो आवलिका न्यून बीस कोडाकोडी सागरोपम परिमाण स्थिति का संक्रमण करे, जिस समय में देवगति में नरकगति की कालस्थिति को संक्रमित करे, तब वेद्यमान मनुष्यगति में स्तिबुक संक्रमण से संक्रमण होता है। देवगति का रसोदय नहीं होता है, उस समय परिमाण स्थिति से दो आवलिका न्यून, जो नरकगति की स्थिति का आगम होता है, उस समय देवगति की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता होती है । इसीप्रकार देवानुपूर्वी आदि सोलह प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता होती है। मिश्रमोहनीय की अन्तर्मुहूर्त स्थिति में न्यून मिथ्यात्वमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति का जो संक्रमण होता है, उसमें वह समय कम करके आवलिका का योग करने से जो परिमाण होता है, उसे मिथ्यात्वमोह की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता कहते हैं। जो आत्मा जिन कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करती हैं और जो आत्मा जिन कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का संक्रमण करती हैं, उस आत्मा में उन कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति होती है। विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों की जघन्य सत्ता :
पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक-सौ सैंतालीसवीं गाथा में कर्मप्रकृतियों की जघन्य काल स्थित की सत्ता के स्वामी का निर्देश किया गया है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क और दर्शनत्रिक की जघन्य काल स्थिति की सत्ता अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती आत्मा में होती है। नारक तिर्यंच और देवायु की जघन्य काल स्थिति की सत्ता अपने-अपने भव के चरम समय में रहनेवाले नारकी, तिथंच और देवों को होती है। अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क, स्त्यानगृद्धित्रिक, नामकर्म की नवें गुणस्थान में क्षय होनेवाली तेरह प्रकृतियाँ, नौ नोकषाय और संज्वलन कषाय त्रिक- इन छत्तीस प्रकृतियों की जघन्यकाल स्थिति की सत्ता अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थानवर्ती आत्मा में होती है। संज्वलन लोभ की जघन्यकाल स्थिति की सत्ता सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती आत्मा में होती है। ज्ञानावरणीय पंचक, दर्शनावरणीय षट्क और अतंराय पंचक कर्मप्रकृतियों की जघन्य काल स्थिति की सत्ता क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती आत्मा में होती है। शेष ६५ कर्मप्रकृतियों की जघन्य काल स्थिति की सत्ता अयोगी केवली गुणस्थानवर्ती आत्मा में होती है।
पंचसंग्रह के पंचम द्वार की गाथा क्रमांक १५४ एवं १५५ में कर्मप्रदेशों की सत्ता के कितने और कौन-कौन से प्रकार है, यह बताया गया है। ध्रुवबंधि शुभ प्रकृतियाँ - निर्माणनामकर्म, अगुरुलघु, शुभवर्णादि एकादश, तैजसकार्मण सप्तक, त्रसादि शतक,
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