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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{308} जीवों को आहारक सप्तक की विकल्प से सत्ता होती है। सास्वादन और मिश्र के बिना अन्य गुणस्थानों में तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता विकल्प से होती है। आहारकनामकर्म और तीर्थकरनामकर्म - इन दोनों की सत्ता जिन जीवों में होती है, वे निश्चय से मिथ्यादृष्टि नहीं होते हैं। तीर्थकरनामकर्म की सत्तावाले जीव केवल पूर्वबद्ध नरकायु के कारण नरक में उत्पन्न होते समय अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यादृष्टि होते हैं ।
प्रथम से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक सभी जीवों को आहारक सप्तक की सत्ता विकल्प से होती है। यदि कोई जीव सातवें और आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक आहारकनामकर्म को बांधकर ऊपर के गुणस्थानों में आरोहित करें और गिरकर नीचे के गुणस्थान में जाए, तो सभी गुणस्थानों में आहारक सप्तक की सत्ता सम्भव होती है और उसका बन्ध नहीं करें, तो उसकी सत्ता सम्भव नहीं होती है।
सास्वादन और मिश्र गुणस्थान को छोड़कर शेष सभी गुणस्थानों में तीर्थकरनामकर्म की सत्ता विकल्प से होती है। तीर्थंकरनामकर्म का जिसने बन्ध किया हो, उस जीव में उसकी सत्ता होती है और जिसने बन्ध न किया हो, उसमें उसकी सत्ता नहीं होती है, परंतु सास्वादन और मिश्रदृष्टि गुणस्थानों में निश्चय से तीर्थकरनामकर्म की सत्ता नहीं होती है, क्योंकि तीर्थकरनामकर्म की सत्तावाली आत्मा दूसरे और तीसरे गुणस्थान में नहीं जाती है। आहारकनामकर्म और तीर्थकरनामकर्म इन दोनों की समकाल में एक जीव में सत्ता हो, तो वह जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में जाता ही नहीं हैं। साथ ही तीर्थंकरनामकर्म की सत्तावाला जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है, उससे अधिक नहीं।
__ पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ बयालीसवीं गाथा में यह बताया गया है कि अयोगी गुणस्थानवर्ती आत्मा को कितनी कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं । उसमें साता और असाता वेदनीय इन दोनों में से एक वेदनीय उच्चगोत्र, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म और तीर्थकरनामकर्म इन नौ प्रकृति नामकर्म की तथा मनुष्यायु ऐसी बारह कर्मप्रकृतियों की सत्ता अयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त रहती हैं।
साता और असाता में एक वेदनीय, देवद्विक, औदारिकसप्तक, वैक्रियसप्तक, आहारकसप्तक, तैजसकार्मणसप्तक, प्रत्येक शरीरनामकर्म, संस्थानषट्क, संघयणषट्क, वर्णादिवीश, विहायोगतिद्विक, अगुरुलघुनामकर्म, पराघातनामकर्म, उपघातनामकर्म, उच्छवासनामकर्म, स्थिरनामकर्म, अस्थिरनामकर्म, शुभनामकर्म, अशुभनामकर्म, सुभगनामकर्म, दुर्भगनामकर्म, सुस्वरनामकर्म, दुःस्वरनामकर्म, अनादेयनामकर्म, अपयशकीर्तिनामकर्म, मनुष्यानुपूर्वी, निर्माणनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म और नीचगोत्र-ये ८३ कर्मप्रकृतियों की अयोगीकेवली गुणस्थान के द्विचरम समय तक सत्ता होती है, तत्पश्चात् उनका क्षय हो जाता है।
पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ पैंतालीसवीं गाथा में उदयसंक्रमोत्कृष्ट और अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियों की उत्कृष्ट कालस्थिति की सत्ता का विवेचन किया है।
__ जब किसी कर्मप्रकृति का उदय काल प्रारम्भ होता है और उस समय उसके कर्मप्रदेशों की सत्ता उत्कृष्ट कालस्थिति की होती है, ऐसी कर्मप्रकृति को उदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृति कहते हैं। वे इस प्रकार हैं - मनुष्यगति, सातावेदनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, स्थिरनामकर्म, शुभनामकर्म, सुभगनामकर्म, सुस्वरनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशः कीर्तिनामकर्म, नौ नोकषाय, प्रशस्त विहायोगतिनामकर्म, प्रथम पाँच संघयण, प्रथम पाँच संस्थान और उच्चगोत्र। इन कर्मप्रकृतियों का जब उदय हो, तब उनमें स्वजातीय अन्य कर्मप्रकृतियों की स्थिति के संक्रमण से दो आवलिका न्यून स्थिति का जो आगम संक्रमण होता है, उसमें उदय आवलिका मिलाने से जितनी कालस्थिति होती है, उतनी उत्कृष्ट कालस्थिति की सत्ता होती है। सातावेदनीय का वेदन करते हुए किसी आत्मा ने असातावेदनीय कर्म की उत्कृष्ट कालस्थिति का बन्ध कर लिया हो और तत्पश्चात् सातावेदनीय का बन्ध आरंभ किया हो, वह वेद्यमान और बध्यमान सातावेदनीय की उदय आवलिका के अतिरिक्त शेष सातावेदनीय में जिनकी बन्ध आवलिका व्यतीत हो चुकी है, ऐसी असातावेदनीय की उदय आवलिका के ऊपर की दो आवलिका न्यून तीस कोडाकोडी सागरोपम परिमाण कालस्थिति का संक्रमण करता है, इसीलिए सातावेदनीय में उसकी उदय आवलिका के अतिरिक्त संक्रमण से जो दो आवलिका
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