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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{307} मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृति की सत्ता होती है, और मिश्र गुणस्थान में निश्चय से मिश्रमोहनीय की सत्ता होती है। चौथे से ग्यारहवें गुणस्थान में मिश्रमोहनीय की सत्ता विकल्प से होती है। क्षायिक सम्यक्त्वी को मिश्रमोहनीय की सत्ता नहीं होती है, उपशम सम्यक्त्वी को मिश्रमोहनीय की सत्ता होती है। पहले गुणस्थान में अभव्य को और जिन्होंने अभी तक सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं किया है, ऐसे भव्य जीवों में मिश्रमोहनीय की सत्ता नहीं होती है और सम्यक्त्व प्राप्त कर जो मिथ्यात्व में जाकर उवर्तना करे, तब तक सत्ता होती है। सास्वादन गुणस्थान तक अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क अवश्य सत्ता में होता है । मिश्र गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के पाँच गुणस्थानों में विकल्प से सत्ता होती है, चौथे से सातवें तक में विसंयोजना की हो तो सत्ता नहीं होती है, अन्यथा होती है, अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना कर तीसरे गुणस्थान में जाए, तो भी मिश्रमोह की सत्ता नहीं होती है, अन्यथा होती है । अनन्तानुबन्धी कषाय की सत्ता मिश्रादि पाँच गुणस्थानों में विकल्प से होती है । अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में प्रथम कषाय चतुष्क की सत्ता नहीं होती है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करके ही उपशमश्रेणी पर आरूढ़ हो सकता है, ऐसा पंचसंग्रह के टीकाकार आचार्य मलयगिरिजी महाराज साहब मानते हैं ।
पंच संग्रह के पंचम द्वार की एक सौ छत्तीसवीं गाथा में कहा है कि मध्यम आठ कषाय अर्थात् अप्रत्याख्यानी चतुष्क, और प्रत्याख्यानी चतुष्क क्षपक अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान के संख्यातवें भाग तक सत्ता में होते हैं। उपशमश्रेणी वाले उपशमक उपशान्तमोह गुणस्थान तक सत्ता में होते हैं। अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान के जिस समय में आठ कषाय का क्षय होता है, उस समय से लेकर संख्याता स्थितिघात होते है, उतने समय तक स्त्यानगृद्धि त्रिक सत्ता में होती है। जब तक स्त्यानगृद्धि त्रिक सत्ता में होती है, तब तक नामकर्म की तेरह प्रकृतियाँ (स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, तिर्यचद्विक, आतपनामकर्म, एकेन्द्रियजाति, विकलेन्द्रिय जाति, साधारणनामकर्म, नरकद्विक और उद्योतनामकर्म) भी सत्ता में होती है। उपशमश्रेणी से आरोहण करने पर उपशान्तमोह गुणस्थान तक इन आठ कषायों की सत्ता होती है।
___ पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ अड़तीसवीं गाथा में कहा गया है कि उपर्युक्त आठो कषायों का क्षय करने के पश्चात् न अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थानवर्ती आत्मा को संख्याता स्थिति भाग के बाद सोलह प्रकृतियों का क्षय होता है, वैसे नपुंसकवेद का जब तक क्षय नहीं होता है, तब तक वह सत्ता में रहता है। उसी तरह नपुंसकवेद का क्षय हो जाने के बाद स्त्रीवेद का क्षय होता है। नपुंसकवेद से क्षपकश्रेणी वाली आत्मा को स्त्रीवेद और नपुंसकवेद एक साथ क्षय होता है। उपशमश्रेणी से आरोहण करने वालों को उपशान्तमोह गुणस्थान तक दोनों वेद सत्ता में होते हैं। स्त्रीवेद का क्षय होने के पश्चात् हास्यादिषट्क का क्षय होता है, तत्पश्चात् दो समय न्यून आवलिका काल में पुरुषवेद की सत्ता का क्षय होता है। यह बात क्षपक श्रेणी करनेवाली आत्मा की अपेक्षा से कही गई है। ___पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ उनचालीसवीं गाथा में कहा गया है कि स्त्रीवेद का उदय होने पर क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाला प्रथम नपुंसकवेद का क्षय करता है। उसके पश्चात् संख्याता स्थितिघात हो जाने के बाद स्त्रीवेद का क्षय करता है। फिर उसी क्रम से हास्यादिषट्क और पुरुषवेद का एक साथ क्षय करता है। नपुंसक वेद का उदय होने पर क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाला प्रथम सत्ता में रहे स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का एक साथ क्षय करता है । उसके पश्चात् पुरुषवेद और हास्यादिषट्क-इन सात प्रकृतियों का समकाल में ही क्षय करता है। इन सबकी क्षय के पूर्व समय तक सत्ता होती है। उपशमश्रेणी से आरोहण करनेवाले को तो ग्यारह गुणस्थान तक इन सबकी सत्ता होती है।
पंचसंग्रह के पंचमद्वार की एक सौ चालीसवीं गाथा में कहा गया है कि अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में पुरुषवेद का क्षय हो जाने के पश्चात् संज्वलन-क्रोध का क्षय होता है। इसी क्रम में संज्वलन मान-माया का क्षय होता है, फिर संज्वलन लोभ का क्षय सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय में होता है। यह बात क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवालों के सम्बन्ध में कही गई है। उपशमश्रेणी से आरोहण करने वालों में तो ये सभी उपशान्तमोह गुणस्थान तक सत्ता में रहते हैं।
पंचसंग्रह के पंचमद्वार की एक सौ इकतालीसवीं गाथा में कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्बन्धी चर्चा की गई है। सभी गुणस्थानवाले
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