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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
नवम अध्याय........{471) संक्षिप्त ही है, किन्तु गुणस्थान सिद्धान्त के विकास को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
श्वेताम्बर परम्परा में जीवसमास के पश्चात् आगमिक व्याख्याओं और तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं को छोड़कर जिन ग्रन्थों का स्थान आता है उनमें गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा की दृष्टि से आचार्य हरिभद्र का क्रम आता है । हरिभद्र के ग्रन्थों में अष्टकप्रकरण, षोडशक, विंशिका, पंचाशक, शास्त्रवार्तासमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय आदि अनेक ग्रन्थ समाहित हैं । आचार्य हरिभद्र की आगमिक टीकाओं के समान ही उनके उपर्युक्त ग्रन्थों में भी कुछ नामनिर्देशों को छोड़कर गुणस्थानों का सुव्यवस्थित विवेचन हमें उपलब्ध नहीं हुआ। यहाँ तक कि हरिभद्र ने अपने योग सम्बन्धी ग्रन्थों में जहाँ आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से
आठ दृष्टियों और अध्यात्म आदि पांच अवस्थाओं का उल्लेख किया है, वहाँ भी उन्होंने गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन नहीं किया है। यहाँ यह कहना तो कठिन है कि आचार्य हरिभद्र गुणस्थान की अवधारणा से अपरिचित रहे हैं, फिर भी यह सुनिश्चित है कि उन्होंने गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन में कोई विशेष रस नहीं लिया है। आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थों में यथास्थान अपनबंधक, सम्यग्दृष्टि, देशविरति, सर्वविरति, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत आदि अवस्थाओं के तो उल्लेख है, किन्तु इस सम्बन्ध में उनकी स्थिति श्वेताम्बर आगमों के समरूप ही है, यहाँ वे आगमों का अनुसरण करते हुए प्रसंगवशात् ही इन अवस्थाओं का उल्लेख करते हैं। हमारे लिए आचार्य हरिभद्र के समग्र ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन तो सम्भव नहीं था, किन्तु सरसरी तौर पर हमने उनका जो अवलोकन किया उसमें कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी विशेष विवेचन उपलब्ध नहीं हुआ । श्वेताम्बर परम्परा में चिरंतनाचार्य विरचित पंचसूत्र नामक प्राकृतभाषा में निबद्ध एक ग्रन्थ मिलता है । इस ग्रन्थ के संकलन कर्ता और टीकाकार आचार्य हरिभद्र माने जाते है । इस ग्रन्थ की टीका में आचार्य हरिभद्रसूरि 'मिथ्यादृष्टिनामपिगुणस्थानाद्वाभ्युपगमात्' - ऐसा निर्देश मिलता है । इसमें यह तो निश्चित हो जाता है कि आचार्य हरिभद्रसूरि गुणस्थान सिद्धान्त से परिचित हैं, फिर भी उनके ग्रन्थों में हमें गुणस्थान सम्बन्धी कुछ निर्देशों के अतिरिक्त विस्तृत विवेचन कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है।
___ आचार्य हरिभद्र के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में यदि हम कथासाहित्य सम्बन्धी ग्रन्थों एवं दार्शनिक मूल ग्रन्थों और उनकी टीकाओं को छोड़ दें, तो आचार्य हेमचन्द्र ही एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने विभिन्न विधाओं पर साहित्य की रचना की है। उनके ग्रन्थों में योगशास्त्र और उसकी स्वोपज्ञवृत्ति महत्वपूर्ण है । योगशास्त्र की विषयवस्तु का अवलोकन करने पर भी हमें उसमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन उपलब्ध नहीं हुआ। योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने श्रावकाचार का विस्तार से विवेचन किया है, किन्तु इस ग्रन्थ में भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है ।
श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य हेमचन्द्र के पश्चात् नेमिचन्द्रसूरिकृत प्रवचनसारोद्धार ही एक ऐसा ग्रन्थ उपलब्ध हुआ है, जिसके २२४ वें द्वार में चौदह गुणस्थानों का उल्लेख मिलता है । यद्यपि मूलग्रन्थ में गुणस्थानों के नामनिर्देश ही हैं, किन्तु इसके टीकाकार सिद्धसेनसूरि ने तथा गुजराती अनुवादक अमितयशविजयजी ने इस प्रसंग में गुणस्थानों का व्यवस्थित विवेचन प्रस्तुत किया है । मूल ग्रन्थ में नामनिर्देश के अतिरिक्त परिषह सम्बन्धी चर्चा में भी गुणस्थानो का समावतार किया गया है । इसी प्रकार
द्धार के नवें श्रेणी द्वार में भी आत्मा किस प्रकार कर्मप्रकृतियों का क्षय एवं उपशमन करती हुई किन गुणस्थानों को प्राप्त होती है, इसका उल्लेख है । श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान के सम्बन्ध में जो भी गहन विवेचन उपलब्ध होता है, वह पंचसंग्रह, प्राचीन तथा अर्वाचीन कर्मग्रन्थों में ही उपलब्ध होता है । स्वतन्त्र रूप से गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना करने वाला, श्वेताम्बर परम्परा में संस्कृतभाषा में रचित, जो ग्रन्थ उपलब्ध होता है वह रत्नशेखरसूरि का गुणस्थानक्रमारोह है । आचार्य देवचन्द्रजी का प्राकृतभाषा की मूलगाथाओं तथा संस्कृतभाषा से युक्त टीका सहित विचारसार प्रकरण दूसरा महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसके प्रथम विभाग का अपरनाम 'गुणस्थान शतक' ही है।
श्वेताम्बर परम्परा की अपेक्षा दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन अधिक व्यापक रूप से उपलब्ध होता है । दिगम्बर परम्परा के शौरसेनी आगम साहित्य और कर्मसाहित्य के अतिरिक्त भी अन्य आचार्यों के ग्रन्थों में भी गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध होता है । आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन प्रस्तुत किया है । इसके अतिरिक्त योगसार आदि में भी हमें गुणस्थान सम्बन्धी सन्दर्भ उपलब्ध हो जाते हैं । इस प्रकार सामान्य निष्कर्ष यह है कि गुणस्थान सम्बन्धी विवेचनों में श्वेताम्बर आचार्यों की अपेक्षा दिगम्बर आचार्यों ने विशेष रुचि प्रगट की है।
इसके पश्चात् प्रस्तुत कृति के सातवें अध्याय में हमने प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त पर
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