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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{260} में उल्लेख किया गया है । हरिभद्र के समय को लेकर मुनि जिनविजयजी ने 'पर्याप्त उवापोह किया है। डॉ. सागरमल जैन ने भी अपने लेख 'समदर्शी आचार्य हरिभद्र' में विस्तार से इस पर विचार किया और हरिभद्र को विक्रम की आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ का आचार्य माना है । आचार्य हरिभद्र सिद्धसेनगणि क्षमाश्रमण से परवर्ती हैं; क्योंकि आचार्य हरिभद्र ने तत्त्वार्थसूत्र और स्वोपज्ञभाष्य पर जो टीका लिखी है, उस पर सिद्धसेनगणि की टीका का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। सिद्धसेनगणि का काल विक्रम की सातवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है, अतः आचार्य हरिभद्र का काल विक्रम की आठवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध समुचित लगता है । श्वेताम्बर परम्परा में उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और स्वोपज्ञभाष्य पर जो टीकाएँ उपलब्ध होती हैं, उसमें सिद्धसेनगणि और आचार्य हरिभद्र की टीकाएँ महत्वपूर्ण हैं । ये दोनों टीकाएँ मुख्यतः उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य को ही अपना आधार बनाती हैं । तत्त्वार्थसूत्र की स्वोपज्ञभाष्य पर हरिभद्रसूरि के नाम से उपलब्ध यह टीका याकिनीसूनु हरिभद्र की है या अन्य किसी हरिभद्र नामक आचार्य की, यह एक विवादास्पद विषय है । जैन परम्परा में हरिभद्र नामक अनेक आचार्य हुए, अतः यह टीका किस हरिभद्र की है, इसे निश्चित करना कठिन है । इसका मुख्य कारण यह है कि तत्त्वार्थभाष्य पर उपलब्ध यह टीका अपूर्ण रूप से ही उपलब्ध है । आचार्य हरिभद्र, तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय के मध्य तक की यह टीका लिख पाए थे । उसके पश्चात् यशोभद्रसूरि ने दसवें अध्याय के अन्तिम सूत्र तक टीका लिखकर इसे पूर्ण किया । इस प्रकार यह टीका आचार्य हरिभद्रसूरि से प्रारम्भ होकर आचार्य यशोभद्रसूरि द्वारा समाप्त हुई । यहाँ यह निर्णय करना भी कठिन है कि यह यशोभद्रसूरि आचार्य हरिभद्र के साक्षात् शिष्य थे या परम्परा से शिष्य थे, फिर भी यशोभद्र नाम से ऐसा लगता है कि वे उनके साक्षात् शिष्य रहे होंगे । प्रस्तुत कृति के संपादक आचार्य आनंदसागरजी का यह मन्तव्य है कि यह कृति निश्चित रूप से 'भवविरह' उपनामधारी याकिनीसूनु आचार्य हरिभद्र की ही टीका है। यह एक भिन्न बात है कि वे अपने जीवनकाल में इसे पूर्ण नहीं कर पाए और उनके यशोभद्र नामक शिष्य ने ही इसे पूर्ण किया । आचार्य आनंदसागरजी ने इसी प्रसंग में यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि हरिभद्रसूरि कृत यह वृत्ति सिद्धसेनगणि कृत वृत्ति से भी प्राचीन है । यद्यपि उन्होंने इसकी पुष्टि में कुछ प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं, किन्तु वे सभी प्रमाण दोनों की समरूपता पर ही अधिक बल देते हैं; अतः कौन किससे प्रभावित है, यह निर्णय कर पाना कठिन है । जहाँ तक जैन विद्वानों के मत का प्रसंग है, वे सिद्धसेनगणि कृत वृत्ति को ही प्राचीन मानते हैं । आचार्य आनंदसागरजी ने अपना जो मन्तव्य प्रस्तुत किया है, उसका आधार परम्परागत पट्टावली ही है, जिसमें हरिभद्रसूरि का समय विक्रम संवत् ५८५ माना गया है; किन्तु हरिभद्र के ग्रन्थों में जिनदासगणि कृत नन्दीचूर्णि, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत विशेषावश्यकभाष्य की गाथाएं उपलब्ध होती हैं । इससे यही मानना होगा कि हरिभद्रसूरि का सत्ता- समय सिद्धसेनगणि के पश्चात् ही है । गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी जो चर्चाएं प्रस्तुत कृति में उपलब्ध होती हैं, उससे भी यह लगता है कि यह कृति याकिनीसूनु हरिभद्र और उनके शिष्य यशोभद्रसूरि की ही है । जब तक इसके विरूद्ध अन्य कोई प्रमाण उपलब्ध न हो, तब तक हमें इसी अवधारणा को स्वीकार करके चलना होगा। अग्रिम पृष्ठों में हम यह देखने का प्रयत्न करेगे कि आचार्य हरिभद्र की तत्त्वार्थसूत्र स्वोपज्ञभाष्य की इस टीका में • गुणस्थान सिद्धान्त किस रूप में उपलब्ध होता है । तत्त्वार्थसूत्र की हरिभद्रीय टीका में गुणस्थान : उमास्वाति की तत्त्वार्थसूत्र पर स्वोपज्ञभाष्य के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में जो टीकाएं उपलब्ध होती हैं, उनमें सिद्धसेनगणि की टीका के पश्चात् याकिनीसुनू आचार्य हरिभद्र की टीका का स्थान आता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आचार्य सिद्धसेन गणि और आचार्य हरिभद्रसूरि दोनों ने ही तत्त्वार्थसूत्र मूल की अपेक्षा अपनी टीका का आधार उमास्वाति के स्वोपज्ञभाष्य को बनाया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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