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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय........{261} चूँकि न तो तत्त्वार्थसूत्र के मूलसूत्रों में और न ही उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थानों का कोई उल्लेख है, अतः इन दोनों टीकाकारों ने ही गुणस्थानों के सन्दर्भ में अपनी टीकाओं में विस्तृत चर्चा नहीं की है । सिद्धसेनगणि ने मात्र एक स्थान पर गुणस्थानों का संक्षिप्त विवेचन किया है। जहाँ तक आचार्य हरिभद्र का प्रश्न है, उन्होंने भी अपनी तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य की इस टीका में गुणस्थानों की अवधारणा का कोई सुस्पष्ट उल्लेख नहीं किया है । आचार्य हरिभद्र की इस टीका में गुणस्थान सम्बन्धी जो प्रकीर्ण उल्लेख हैं, वे मुख्य रूप से केवल नवें और दसवें अध्याय में ही हैं । अध्याय एक, छः और आठ में मात्र प्रसंग आधारित कुछ संकेत ही मिलते हैं। अग्रिम पष्ठों में हम इसकी विस्तत चर्चा करेंगे।
सर्वप्रथम निर्देश स्वामित्व आदि सूत्र की टीका (पृष्ठ-४६) में मात्र सयोगी केवली और शैलेशी अवस्था को प्राप्त निरूद्धयोगी (अयोगी) गुणस्थानों से सम्बन्धित इन दो शब्दों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि इसकी व्याख्या में भी गुणस्थान शब्द का स्पष्ट प्रयोग नहीं किया गया है, अतः इसे एक सामान्य उल्लेख ही माना जा सकता है । इसके पश्चात् प्रथम अध्याय में ही अवधि ज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान की चर्चा करते हुए अविरत, संयतासंयत और संयत-ऐसे तीन शब्दों का उल्लेख मिलता है, जिन्हें गुणस्थानों से सम्बन्धित माना जा सकता है, किन्तु यहाँ भी इन अवस्थाओं का विशेष विवेचन उपलब्ध नहीं होता है । अतः, मात्र यही कहा जा सकता है कि यद्यपि आचार्य हरिभद्र गुणस्थान सिद्वांत से अवश्य परिचित रहे होंगे, किन्तु उस सिद्धान्त को आधार बनाकर प्रस्तुत प्रसंग में उन्होंने कोई विस्तृत विवेचना नहीं की है।
पुनः आचार्य हरिभद्र ने तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य के छठे अध्याय के बीसवें सूत्र की टीका में सरागसयंम, संयमासंयम, देशविरत और सर्वविरत अवस्थाओं का चित्रण करते हुए उनका संक्षिप्त विवरण दिया है । यद्यपि देशविरत और सर्वविरत-ये दोनों अवस्थाएं क्रमशः पांचवें और छठे गुणस्थान के रूप में स्वीकृत रही है, किन्तु यदि हम इस सूत्र की सम्पूर्ण टीका को देखें तो उसमें आचार्य हरिभद्र ने कहीं भी न तो गुणस्थान शब्द का कोई उल्लेख किया है और न ही इनके स्वरूप की विस्तृत विवेचना की है । प्रस्तुत प्रसंग में देव आयुष्य के बन्ध के कारणों के रूप में इन अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, अतः इस प्रसंग में भी हम ऐसा नहीं कह सकते कि आचार्य हरिभद्र ने यहाँ गुणस्थानों की कोई चर्चा की है।
पुनः तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य के आठवें अध्याय के दसवें सूत्र की टीका में आचार्य हरिभद्र ने चारित्रमोह कर्मप्रकृतियों की चर्चा के प्रसंग में मिथ्यादृष्टि, देशविरत, सर्वविरत आदि अवस्थाओं का उल्लेख किया है । इसमें यह भी बतलाया है कि अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से सम्यग्दर्शन सम्भव नहीं है। अप्रत्याख्यानीय कषाय के सद्भाव में देशविरति सम्भव नहीं है। प्रत्याख्यानीय कषाय की उपस्थिति में सर्वविरति का लाभ नहीं होता है । इस प्रकार यहाँ मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, देशविरत और सर्वविरत-इन चार अवस्थाओं का कषाय के प्रसंग में उल्लेख किया गया है, किन्तु यहाँ भी कषायों के स्वरूप की ही चर्चा विशेष रूप से मिलती है। यह समस्त चर्चा मुख्य रूप से मोहनीय कर्म के बन्ध और क्षयोपशम से सम्बन्धित है और निश्चित है कि मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के क्षयोपशम का सम्बन्ध गुणस्थान सिद्धान्त से रहा हुआ है, किन्तु सात-आठ पृष्ठ के विस्तृत विवेचन में आचार्य हरिभद्र ने कहीं भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं किया है । अतः यह कहना कठिन है कि इस सम्पूर्ण विवेचन में गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से कोई विचार किया गया हो। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य की आचार्य हरिभद्र की टीका में अध्याय एक से लेकर आठ तक की सम्पूर्ण विवेचना में चाहे गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित कुछ अवस्थाओं का नाम मिलता हो; किन्तु उसे गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस सम्पूर्ण विवेचन में हमें कहीं भी गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं मिला । मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, देशविरत, सर्वविरत आदि के उल्लेख जैन दर्शन में गुणस्थान सिद्धान्त के अतिरिक्त उपलब्ध होते हैं, क्योंकि ये अवस्थाएं जैनदर्शन में सामान्य रूप से स्वीकृत रही हैं । गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित जो थोड़ा-बहुत विवेचन प्रस्तुत टीका में पाया जाता है, वह नवें अध्याय से सम्बन्धित है । नवें अध्याय
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