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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{262} में परिषहों की चर्चा के प्रसंग में, दसवें सूत्र की टीका प्रारम्भ करने के पूर्व उन सूत्रों की टीका के अन्त में, आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट रूप से गुणस्थान शब्द का प्रयोग किया है । वहाँ प्रारम्भ में ये लिखते हैं कि 'गुणस्थानेषु क्वेत्यहि' । पुनः बारहवें सूत्र की टीका के अन्त में लिखते हैं कि 'उक्ता गुणस्थानेषु यथा सम्भव परिषहाः । (अध्याय-६ सूत्र-१२ पृष्ठ-६६) इस प्रकार प्रस्तुत विवेचना में किस गुणस्थानवी जीव को कितने परिषह होते हैं, इसकी स्पष्ट चर्चा है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के मूलसूत्रों में तो मात्र इतना कहा गया है कि जिन को ग्यारह परिषह, सूक्ष्मसम्परायछद्मस्थवीतराग को चौदह और बादरसम्पराय युक्त मुनि को बाईसों परिषह होते हैं, किन्तु आचार्य हरिभद्र ने चर्चा के पूर्व और अन्त में गुणस्थान शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया है कि यहाँ ये परिषह, इस चर्चा के सन्दर्भ में 'गुणस्थानों' का अवतरण कर रहे हैं। परिषह की इस चर्चा में आचार्य हरिभद्र ने यह स्पष्ट किया है कि बाईस परिषहों में प्रज्ञा परिषह और अज्ञान परिषह-ये दो परिषह ज्ञानावरण कर्म के कारण होते हैं । दर्शनमोह के कारण दर्शन परिषह और लाभांतराय के कारण अलाभ परिषह होता है। नाग्न्य, निषद्या, याचना, आक्रोश, अरति, स्त्री, सत्कार आदि सप्त परिषह चारित्र मोहनीय के कारण होते हैं । इनमें भी जुगुप्सा के कारण नाग्न्य परिषह होता है । अरति के उदय के कारण अरति परिषह होता है । वेद के उदय के कारण स्त्री परिषह होता हैं। निषद्या परिषह का कारण भय है । क्रोध के उदय में आक्रोश परिषह होता है। मान के उदय में याचना परिषह होता है । लोभ के उदय में सत्कार परिषह होता है । इस प्रकार ये सातों परिषह चारित्रमोहनीय की कर्मप्रकृतियों के उदय के कारण होते हैं, शेष ग्यारह परिषह वेदनीय कर्म के उदय के कारण होते हैं, जो क्रमशः क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, तृण, स्पर्श और मल परिषह हैं। चूंकि बादरसम्पराय नामक नवें गुणस्थान तक मोहनीय आदि आठों कर्मो का उदय रहता है, अतः इस गुणस्थान में सभी परिषहों की संभावना को स्वीकार किया गया है । सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में यद्यपि सूक्ष्म लोभ की सत्ता रही हुई है, फिर भी वह इतना सूक्ष्म होता है कि इस गुणस्थान में दर्शनमोहनीय के निमित्त से होने वाला एक और चारित्रमोहनीय के निमित्त से होनेवाले सात-ऐसे आठ परिषह समाप्त होकर शेष चौदह परिषह होते हैं । जिन या केवली को मोह के साथ-साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मक्षय हो जाता है; अतः मोहनीयजन्य आठ ज्ञानावरणजन्य दो और अन्तरायजन्य एक-ऐसे ग्यारह परिषहों का अभाव होता है और वेदनीयजन्य शेष ग्यारह परिषह ही रहते हैं । आचार्य हरिभद्र ने परिषहों में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए इस चर्चा के प्रांरभ में और अन्त में गुणस्थान शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु इसके अतिरिक्त (६/१०) नवें अध्याय के दसवें सूत्र की व्याख्या में 'नवमें गुणस्थाने दसमे सूक्ष्मलोभ परमाणवो विद्यन्ते'-ऐसा स्पष्ट उल्लेख किया है । इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि आचार्य हरिभद्र के समक्ष चौदह गुणस्थानों की एक सुस्पष्ट विचारणा उपस्थित थी। पुनः आचार्य हरिभद्र ने तत्त्वार्थसूत्र की इस टीका में नवें अध्याय में चार ध्यानों की चर्चा करते हुए भी गुणस्थान की अवधारणा का स्पष्ट उल्लेख किया है। नवें अध्याय के पैंतीसवें सूत्र 'तद्विरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्' की व्याख्या करते हुए उन्होंने यह बताया है कि आर्तध्यान चतुर्थ, पंचम और षष्ठ गुणस्थानवर्ती को होता है । यहाँ भी उन्होंने स्पष्ट रूप से गुणस्थान शब्द का उल्लेख किया है। 'अस्यत्रयस्वामिश्चितुर्थपंचमषष्ठगुणस्थानवर्तिन' (पृ ४६०) इसी प्रसंग में रौद्रध्यान के कर्ता रूप में अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत इन दो गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है । यद्यपि यहाँ आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट रूप से गुणस्थान शब्द का निर्देश तो नहीं किया है, किन्तु अविरत और देशविरत-इन दोनों शब्द की व्याख्या इसी अर्थ में की गई है। इसी क्रम में धर्मध्यान के अधिकारी के रूप में अप्रमत्तसंयत का उल्लेख हुआ है । इसी प्रसंग में सम्यग्दृष्टि, अप्रमत्तसंयत आदि का भी उल्लेख किया है । पुनः सूत्र ‘उपशान्तक्षीणकषाययोश्च' ६/३८ की टीका में उपशान्तकषाय को स्पष्ट रूप से एकादश गुणस्थानवर्ती Jain Education Intemational International For Private & Personal Use Only For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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