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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{263} कहा गया है । इसी सूत्र की टीका में आगे अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसम्पराय, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय का उल्लेख हुआ है । यद्यपि यहाँ सूक्ष्मसम्पराय का स्पष्ट उल्लेख तो नहीं है, किन्तु अपूर्वकरण के पश्चात् 'ततः परम स्थानम्' के आधार पर इस गुणस्थान का भी उल्लेख माना जा सकता है । इसके पश्चात् नवें अध्याय के चालीसवें सूत्र ‘परेकेवलिनः' की टीका में शुक्लध्यान की चर्चा में 'केवलिन एव त्रयोदशचतुर्दशगुणस्थानक्रमेणैव भवतः', कहकर तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान का भी स्पष्ट उल्लेख किया है । इस प्रकार चारों ध्यानों और उनके अधिकारियों की चर्चा के प्रसंग में अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक सभी गुणस्थानों का प्रायः निर्देश हुआ है । इसमें यह बताया गया है कि चतुर्थ, पंचम और षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीवों में आर्तध्यान सम्भव होता है । अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरतसम्यग्दृष्टि-इन दो गुणस्थानों में रौद्रध्यान की संभावना होती है । इसके पश्चात् सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक धर्मध्यान की संभावना होती है । उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगी केवली और अयोगी केवली-इन चार गुणस्थानों में शुक्लध्यान की संभावना स्वीकार की गई है। तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय के सूत्र अड़तालीस में आध्यात्मिक विशुद्धि की दस अवस्थाओं का चित्रण है, क्योंकि आध्यात्मिक विशुद्धि की ये दस अवस्थाएं गुणस्थान सिद्धान्त के विकास की दृष्टि से बीजरूप मानी गई है। डॉ. सागरमल जैन का मानना है कि गुणस्थान सिद्धान्त के विकास में आध्यात्मिक विकास की ये दस अवस्थाएं ही आधारभूत रही हैं, किन्तु अधिकांश जैनाचार्यों ने इन दस अवस्थाओं को दस गुणश्रेणियों के रूप में स्वीकार किया है, क्योंकि इनका स्पष्ट सम्बन्ध कर्मो की अनन्त-अनन्तगुणा निर्जरा से रहा है। आचार्य हरिभद्र की इस टीका में इन अवस्थाओं का चित्रण करते हुए कहीं भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग नही किया है। यहाँ मात्र यही बताया गया है कि सम्यक्त्व, श्रावक (देशविरत), विरत (सर्वविरत), अनन्तवियोजक, दर्शनमोह क्षपक, चारित्र मोह उपशमक, उपशान्त चारित्र मोहक्षपक, क्षीणमोह तथा जिन इन दस अवस्थाओं में क्रमशः असंख्येयगुणा कर्म निर्जरा होती है । इस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने इस सूत्र की टीका में कहीं भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं करके इन्हें गुणश्रेणी से ही सम्बन्धित माना है। तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय के उनपचासवें सूत्र में पांच प्रकार के निर्ग्रन्थों की चर्चा है। इस सूत्रकी टीका में वीतरागछद्मस्थ की व्याख्या करते हुए उन्हें स्पष्ट रूप से 'एकादशद्वादशगुणस्थानवर्तिनः' कहा है । पुनः सयोगी केवली का उल्लेख करते हुए उन्हें त्रयोदशगुणस्थानवर्ती कहा है। इसी प्रकार शैलेशी अवस्था को प्राप्त आत्मा को अयोगी केवली कहा गया है । इस प्रकार सूत्र क्रमांक/४६-५० में उपशान्तकषाय.क्षीणकषाय.सयोगी केवली और अयोगी केवली ऐसे चार गणस्थानों से सम्बन्धित चित्रण उपलब्ध होता है। पुनः तत्त्वार्थसूत्र के दशम अध्याय के सूत्र क्रमांक सात की टीका में सम्यग्दृष्टि, देशविरति (संयतासंयत) प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थान सूचक अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है । विशेषता यह है कि इस टीका में आचार्य हरिभद्र ने सम्यग्दृष्टि आदि को स्पष्ट रूप से गुणस्थान कहकर सम्बोधित किया है। वे लिखते हैं कि 'सम्यग्दृष्ट्यादि गुणस्थानानां केवली पर्यन्तानाम संख्येयगुणोत्कर्ष प्राप्त्या' अर्थात् सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थान से लेकर केवली पर्यन्त गुणस्थान तक असंख्येय गुणोत्कर्ष की प्राप्ति होती है । इस कथन से यह फलित होता है कि नवें अध्याय के सूत्र ४८ में, जो आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं का चित्रण करके उनमें 'असंख्येय गुणनिर्जरा' की बात कही गई है, उसी को आचार्य हरिभद्र ने यहाँ गुणोत्कर्ष कहकर गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित करने का प्रयत्न किया है । जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है, इन दस अवस्थाओं को पूर्वाचार्यों ने गुणश्रेणी के रूप में व्याख्यायित किया है । यहाँ गुणश्रेणियाँ आगे चलकर गुणोत्कर्ष के रूप में गुणस्थान की वाचक बनीं । इस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने गुणश्रेणी और गुणस्थान (गुणोत्कर्ष) को सम्बन्धित करने का प्रयत्न अवश्य किया है, क्योकि उन्होंने स्पष्ट रूप से यह भी कहा है कि पूर्वोपार्जित्त कर्म की निर्जरा से ही गुणोत्कर्ष रूप गुणस्थानों की प्राप्ति होती है । आचार्य हरिभद्र के इस स्पष्ट संकेत Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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