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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{111) मनुष्यगति में मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। मारणान्तिक समुद्घात प्राप्त मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम सात बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। इन तीनों प्रकार के मनुष्यो में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। उपर्युक्त मनुष्यों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग, बहुभाग और सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं । लब्धि अपर्याप्त मनुष्य लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। लब्धि अपर्याप्त मनुष्य अतीत और अनागत काल की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं।
देवगति में देवों में मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। देवों में मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव अतीत और अनागतकाल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और कुछ कम नौ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। विहारस्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रिय समुद्घात को प्राप्त हुए पहले और दूसरे गुणस्थानवर्ती देव आठ बटे चौदह भाग और मारणान्तिक समुद्घात प्राप्त पहले और दूसरे गुणस्थानवर्ती देव नौ बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं, ऐसा जानना चाहिए । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । तीसरे और चौथे गुणस्थानवर्ती देव अतीत और अनागत काल में कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती भवनपति, व्यन्तर और ज्योतिष्क देव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग, आठ भाग और नौ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। विहारस्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रिय समुद्घात को प्राप्त ये तीनों प्रकार के मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव त्रसनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग का और आठ भागों का स्पर्श करके रहे हुए हैं, कारण यह कि मेरू पर्वत के नीचे दो रज्जु और ऊपर सौधर्म विमान के शिखर के ध्वजादण्ड तक डेढ़ रज्जु का स्पर्श तो बिना किसी अन्य देव के सहयोग से स्पर्श करते हैं, तथा ऊपर के देवों की सहायता से मेरू पर्वत के नीचे दो रज्जु और ऊपर आरणअच्युत कल्प तक छः रज्जु, इस प्रकार आठ रज्जु परिमाण क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा नीचे दो रज्जु और ऊपर सात रज्जु, इस प्रकार नौ रज्जु परिमाण क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती भवनपति, व्यन्तर और ज्योतिष्क देव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती भवनपति, व्यन्तर और ज्योतिष्क देव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम साढ़े तीन भाग का और कुछ कम आठ बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। सौधर्म और ईशान कल्पवासी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देवों का स्पर्शक्षेत्र देवों के सामान्य स्पर्शक्षेत्र के समान हैं । सानत्कुमार कल्प से लेकर सहस्रार कल्प तक के देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देव लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। सानत्कुमार कल्प से लेकर सहस्रार कल्प तक के मिथ्यादृष्टि आदि चारों गुणस्थानवर्ती देव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं। आनत कल्प से लेकर आरण-अच्युत तक के कल्पवासी देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। प्रथम से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक के आनतादि चार कल्पों के देव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा लोक का कुछ कम छः बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं। विहार (गमनागमन) तथा वेदना, कषाय, वैक्रिय और मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त ये देव लोकनाड़ी के चौदह भागों में से छः भाग का स्पर्श करते हैं। इससे अधिक स्पर्श न करने का कारण यह है कि उनका चित्रा पृथ्वी के ऊपर के
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