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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{112) तल के नीचे गमन सम्भव नहीं हैं । नौ ग्रैवेयकविमानवासी देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। नौ अनुदिशों से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक के विमानवासी देव, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं।
इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय पर्याप्त, एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव तथा उन्हीं के अपर्याप्त जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । लब्धि अपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। लब्धि अपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं।
__ कायमार्गणा में पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, बादर वायुकाय और बादर वनस्पतिकाय प्रत्येक शरीरी जीव तथा इन्हीं पांचों बादर कायों से सम्बन्धित अपर्याप्त जीव, सूक्ष्म पृथ्वीकाय, सूक्ष्म जलकाय, सूक्ष्म अग्निकाय, सूक्ष्म वायुकाय तथा इन्हीं सूक्ष्म जीवों के पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। बादर पृथ्वीकाय, बादर जलकाय, बादर अग्निकाय और बादर वनस्पतिकाय प्रत्येक शरीरी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। इन जीवों ने अतीत और अनागत काल की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श किया है । बादर वायुकाय पर्याप्त जीव लोक का संख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। बादर वायुकाय के पर्याप्त जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। वनस्पतिकाय जीव, निगोद जीव, वनस्पतिकाय बादर जीव, वनस्पतिकाय सूक्ष्म जीव, वनस्पतिकाय बादर पर्याप्त जीव, वनस्पतिकाय सूक्ष्म पर्याप्त जीव, वनस्पतिकाय सूक्ष्म अपर्याप्त जीव, निगोद बादर पर्याप्त जीव, निगोद बादर अपर्याप्त जीव, निगोद सूक्ष्म पर्याप्त जीव और निगोद सूक्ष्म अपर्याप्त जीव-ये सभी जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। त्रसकाय लब्धि अपर्याप्त जीवों का स्पर्शक्षेत्र पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों के समान लोक का असंख्यातवाँ भाग है।
योगमार्गणा में पांचों मनोयोगियों और पांचों वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग का और सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। काययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान सम्पूर्ण लोक है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती काययोगी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । काययोगी सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ के समान लोक का असंख्यातवाँ भाग, असंख्यातवाँ बहुभाग और सम्पूर्ण लोक है । औदारिक काययोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान सम्पूर्ण लोक है । औदारिक काययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। इन जीवों ने अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम सात बटे चौदह भाग का स्पर्श किया है। औदारिक काययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। औदारिक काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं।
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